Sunday, 19 July 2015

दीप प्रज्ज्वलन...

दीप प्रज्ज्वलन... 


इस देश को हम क्या कुछ देंगे,
इसने ही सब कुछ हमें दिया, 
फिर भी यदि तुम देना चाहो, 
तो रौशन कर दो एक "दिया"।

वह दीप जो हर दिल को दे दे,
कुछ देश-प्रेम रस भरने को,
जिसकी लौ से निकली ऊष्मा,
प्रेरित कर दे मिट- मरने को।


आभा जिसकी फैले ऐसी,
अँधियारे बोलें "त्राहि माम्",
मिट जाये दूरी जन-जन की,
ना रहें "खास", सब बनें आम,

ना ऊँच-नीच का आसन हो,
ना श्वेत-श्याम का भाषण हो,
धरती पर पाँव रहें सबके,
इतना ऊंचा सिंहासन हो।

घर की मिट्टी से दीप बने,
उसमें "पानी" परिपाटी की 
जो तेल जले इस दीपक में,
उसमें खुशबू हो माटी की।

जिस माटी मे मिलना सबको,
उस माटी का सम्मान रहे,
हो स्वाभिमान अंतस्तल में,
जाहिर न कोई अभिमान रहे। 

हर पुत्र सिपाही बन जाये,
इससे   फैले उजियारे में,
ना  रहे भेद-भाव कोई,
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे में। 


 20 जुलाई 2015        ~~~ अजय।

सियासत के रिश्ते...

सियासत के रिश्ते...

ऐ मेरे दोस्त, इसमें ऐसा क्या अजूबा है ?
वो कल तेरी माशूका थी... वो आज मेरी महबूबा है। 

नया कुछ भी नहीं कि इतना मायूस हो चला है तू,
यहाँ हर शख़्स जितना बाहर, उससे कई गुना डूबा है।

नज़र आता नहीं चेहरा, असल, सियासतदारों का,
जान पाओगे तुम कैसे, कि किसका क्या छुपा मंसूबा है।

रिश्ते कब उग आयें कहाँ, बंजर जमीनों में,
कौन जाने कि वो रकीब है, या कि वो कोई दिलरूबा है।

सियासत खेल जादुई, बहुत अजीब है जानम,
रिश्ते बुलबुले यहाँ, सिर्फ कुर्सी ही एक महबूबा है॥

01 सितंबर 15                             ~~~अजय। 

मुलाक़ात हो गयी...

मुलाक़ात हो गयी... 

जाने कैसे, ये अनजानी बात हो गयी,
वो मिले भी नहीं, ... मुलाक़ात हो गयी। 

ना वो सरगोश थे, ना मैं मदहोश था,
अपनी तनहाई में, मैं भी खामोश था,
ना कली कोई चटकी, न गुल ही खिले,
लब हिले भी नहीं,... और बात हो गयी, 
... वो मिले भी नहीं, मुलाक़ात हो गयी।

बंद आँखों में बस, कुछ खयालात थे,
छाए यादों की ड्योढ़ी, के लम्हात थे,
नींद कब आई आँखों में, किसको खबर,
सोते-जगते ये उजली सी रात हो गयी,
... वो मिले भी नहीं, मुलाक़ात हो गयी।

कौन कहता है नैनों में, पलते हैं ख़ाब,
मेरी आँखों में बसते हैं, बस एक आप,
दीन दुनिया की हमको, खबर ही कहाँ,
वो हंसें तो मेरा दिन, वरना रात हो गयी,
... वो मिले भी नहीं, मुलाक़ात हो गयी।

जाने कैसे, ये अनजानी बात हो गयी,
वो मिले भी नहीं, ... मुलाक़ात हो गयी॥ 

19 जुलाई 2015              ~~~ अजय। 

Sunday, 5 July 2015

चर्चाएं हैं...

चर्चाएं हैं...

चर्चाएं हैं हर लब पे, मेरे गाँव तुम्हारे, आने के;
बागों में कलियाँ मुसकाईं, गोकुल के , बरसाने के॥ 

कान्हाँ जब तुम चले गए थे, साज़ों ने, संगीत भुलाए;
कागा कल मुंडेर पर बोला, कोकिल के सुर, गाने के॥

पेड़ों की सूखी शाखाएँ, अँगड़ाई ले, झूम उठी हैं;
होड़ लगे शाखों में जल्दी, नयी कोंपले, लाने के॥

आज हवाओं में है शामिल, खुशबू तेरे, तन-मन की;
विरहन मन में गुंजन हैं, रस-भरे प्रेम के, गाने के॥

बरखा के बूँदों में भी, तेरे पद-चाप की, आहट है;
तपते मन ने आस जगाए, अपनी प्यास, बुझाने के॥

अब ना कहना श्याम सांवरे, छोड़ के फिर, हमको जाना है;
सहन न होंगे अब हमसे, ये तीर ननद के, ताने के॥

चर्चाएं हैं हर लब पे, मेरे गाँव तुम्हारे, आने के;
बागों में कलियाँ मुसकाईं, गोकुल के , बरसाने के॥

05 जुलाई 15                                          ...अजय। 

संकर्षण जी की कलम के सौजन्य से ....... (आगे ):-
 उमड़ रहे हैं नीर नयन में, मेघ गगन में गरजे हैं !
उर की तपती धरती भीगी, मौसम नैन मिलाने के !!

भूत भविष्यत् वर्त्तमान में हर पल साथ 'निभा'उँगी !
स्वप्न देखती रहती हूँ मैं स्वयं 'अजय' बन जाने के !!

Tuesday, 23 June 2015

बहुरूपिया...

बहुरूपिया...

बदला हमारे दिल से, बा-कायदा लिया,
दुश्मन  था, ... दोस्त बन के उसने फ़ायदा लिया।

तरक़ीब लाजवाब थी, जो उसने चल दिया, ...

कुछ रोज पहले आके उसने जायजा लिया,
धीरे से मेरी रूह में जगह बना लिया,
और फिर मेरे जज़्बात का यूं फ़ायदा लिया।

जब बहने लगे रौ में उसकी,  हम नदी समान,

सपने दिखा के उसने हमसे वायदा लिया,
जब डुबकियाँ लेने लगा ये, मोहब्बत मे दिल,
तब ... मेरी चाहत का, उसने फ़ायदा  लिया । 

बहुरूपिया वो था, जिसे समझ सके ना हम,

उसने हमारे प्यार को अलाहिदा लिया,
जब नाव डोलने लगी नदिया की मौज में,
उसने झटक के दामन हमसे छुड़ा लिया।

बदला  हमारे दिल से, बा-कायदा लिया,
दुश्मन  था, ... दोस्त बन के उसने फ़ायदा लिया।

12 जून 2015                             ...अजय। 


संवेदनहीन...

संवेदनहीन... 

क्यूँ उठाऊंगा मैं, जिम्मेवारियाँ,
क्यूँ थामूंगा हाथ में पतवार मैं,
आशा भरी निगाहें बेधती रहें,
डोलती इक नाव पर सवार मैं। 

सींचा गया हूँ बेल की मानिंद मैं,
इस लिए हूँ लीन गहरी नींद में,
हादसों के हाथ झकझोरें भी तो,
क्यूँ उठाऊँ अपने कांधे भार मैं।

जाने किस आचार के आगोश हूँ,
होश में होते हुये ..... बे-होश हूँ,
दिख रहीं भविष्य की रुसवाइयाँ भी,
फिर भी हूँ अंजाना, बना लाचार मैं।

मत दिखाओ कोई मुझको रास्ते,
मैं हूँ केवल, सिर्फ अपने वास्ते,
जानता हूँ मैं, विषम से बच निकलना,
हूँ मजा हुआ वो कलाकार मैं। 

दर्द है..... तो तुम उठा लो वेदना,
मुझमें न थी, ..... न है, कोइ संवेदना,
मत रखो मुझसे कोई उम्मीद तुम,
हूँ बवंडर, ना कि शीतल बयार मैं। 

11 जून 2015              ...अजय। 

छलियों से सावधान ...

छलियों से सावधान...

छलने वालों से रहना सतर्क साथिया,
उनको आते हैं लाखों सु-तर्क साथिया। 

पास आएंगे, तुमको लुभाएँगे  वो,
रस मे डूबी कहानी सुनाएँगे वो,
उनकी बातों मे जाना, उलझ ना प्रिये,
वो जला लेते हैं, आँसुओं से दिये,
मिर्च बेचते हैं वे, लगा के बर्क साथिया ...
उनको आते हैं लाखों सु-तर्क साथिया। 

उनकी काया के रंग गोरे-गोरे से हैं,
उनके मुखड़े के भाव, बड़े भोले से हैं,
उनकी बातों से मधु सा टपकता दिखे,
पल मे रच देते हैं, मीठे सपने सखे,
"भू-मध्य" को बनाते हैं, "कर्क" साथिया ...
उनको आते हैं लाखों सु-तर्क साथिया। 

10 जून 2015                           ... अजय। 

Saturday, 6 June 2015

वक़्त के फैसले

वक़्त के फैसले...

वक़्त के भी गज़ब के फैसले हैं,
दर्द के हौसले अब बढ़ चले हैं,
सुकूँ तलाशने को अब किधर जाएँ,
कदम-दर-कदम पर तो ज़लज़ले हैं। 

05जून 2015              ....अजय।

Sunday, 31 May 2015

खरीददार...खबरदार !

खरीददार...खबरदार !... 

सुन ऐ खरीददार ... खबरदार !
मैं बिकता नहीं हूँ ,
टूट जाऊँ भले एक दिन पर ... 
मैं झुकता नहीं हूँ । 

चलते होंगे करोड़ों के, सिक्के तेरे ... 
फिरते होंगे हज़ार, आगे पीछे तेरे ... 
मैं न चल पाऊँगा तेरी राहें,
तेरा सिक्का नहीं हूँ । 
सुन ऐ खरीददार ... खबरदार ! मैं बिकता नहीं हूँ ।

गा सको मेरे सुर में, तो गाओ ... 
चल सको मेरे संग, तो आ जाओ ... 
कारवाँ हूँ वो, जो चल पड़ा हूँ, 
मैं रुकता नहीं हूँ । 
सुन ऐ खरीददार ... खबरदार ! मैं बिकता नहीं हूँ । 

खोल आँखों को, आर-पार देखो... 
हो रहे हैं वो तार-तार, देखो... 
खुली पुस्तक मेरी जिंदगानी, 
कोई परदा नहीं हूँ। 
सुन ऐ खरीददार ... खबरदार ! मैं बिकता नहीं हूँ । 

31 मई 2015                               ...अजय।

Sunday, 10 May 2015

कुर्सी दोहावली

ॐ कुर्सीयाय नम: ...
  
(1)   कुर्सी के सम्मान में, पेश करूँ मैं छंद। 
        माते को शत-शत नमन, करके आँखें बंद॥ 

(2)  कुर्सी कुर्सी जग रटे, देवी यही विशिष्ट।
       जिनकी सेवा में जुटे, आम कनिष्ठ वरिष्ठ॥

(3)  कुर्सी को हरि जानिए, नित्य कीजिये ध्यान।
       देवी को न बिसारिए, सञ्झा और विहान॥

(4)  चार पाँव दुइ हस्त हैं, पीछे पृष्ठ-उठान ।
       सज्जित आसन गुदगुदा, बैठे ताहि महान॥  

(5)  गृह की  शोभा में सजीं, देवी 'सोफा' नाम। 
       भांति-भांति सूरत सजे, भांति-भांति के दाम॥

(6)  जन-जन को आराम दें, हैं दफ़्तर की शान।
       रूप रंग से दे रहीं, धारक को पहचान ॥

(7)  देवी सुमिरन सम करें, निरबल और सशक्त।
       जिनके घर ये जा बसें, तिनके पलटें वक़्त॥

(8)  नत मस्तक जन-जन हुआ, इनके आगे आज।
       चाहें तो  ये बिगाड़ि दें, चाहें कर दें काज॥

(9)  जिन पर क्रोधित हो गईं, तिनके फूटे भाग।
       सागर को गागर करें, जल को कर दें आग ॥

(10) देवी-अर्जन दौड़ में, टूटीं सारी नीति।
        कुर्सी पाने के लिए, भांति-भांति की प्रीति॥

(11) देवी को रखि हृदय में, झट धरि लीजे पाँव।
       जो चाहें पल में करें, जानत सारे दाँव॥ 

(12)  जिनके दिन कछु कठिन हों, करें  मातु सम्मान।
         कर भरि धारक दान दें, पांवें तुरत निदान॥ 
(एक साथ जोर से बोलिए कुर्सी माता की...... जय)

10 मई 2015                                   .......अजय। 

किताबें झाँकती हैं

किताबें झाँकती हैं ...

किताबें झाँकती हैं...., 
किताबें झाँकती हैं..........
कि आओगे,  कभी तो तुम ... हमें पढ़ने के लिए, .....(2)
आस बाँधे,.... वो रास्ता ताकती हैं ...
किताबें झाँकती हैं,
किताबें झाँकती हैं..........

तुम आओ नहीं आओ, ...है तुम्हारी मर्जी, ......(2)
रोज दिल में ये कुछ "नए पन्ने" टाँकती हैं,
किताबें झाँकती हैं,
किताबें झाँकती हैं..........

10 मई 15                     ...अजय। 

Wednesday, 15 April 2015

अक्षत तुम्हारे नाम

अक्षत तुम्हारे नाम ...


लो पढ़ लो, जो भेजे नहीं थे, ख़त तुम्हारे नाम,
है क्षत-विक्षत हृदय का...अक्षत तुम्हारे नाम।

लिखा  इनको कभी हमने, खयालों की कलम से था, 
शब्द लब पर नहीं आए...मेरी आँखों मे था कलाम।

तुम पढ़ भी लेते थे, बस खामोश नज़रों से,
और चल दिया करते थे, बिना जिक्र बिना दाम।

रुसवा भी कर गए हमें , तुम दे के अपना नाम,
जमाने की मुसकानों में, मेरे दर्द का पयाम। 

लो पढ़ लो, जो भेजे नहीं थे, ख़त तुम्हारे नाम,
है क्षत-विक्षत हृदय का...अक्षत तुम्हारे नाम।

*1.दाम = value, भाव  2.पयाम = संदेश, पैगाम 
15 अप्रैल 2015                            ...अजय। 

Monday, 8 September 2014

खतरे में......???

खतरे में...

न राम खतरे में, ... न इस्लाम खतरे में,
कोई है जो खतरे में तो है ईमान खतरे में,
न बोधि खतरे में, न गुरु-ज्ञान खतरे में,
खतरे में अगर है तो है इंसान खतरे में।

है प्रेम का संदेश, सभी पोथी-पतरे में,
है रंग एक सा, लहू के कतरे कतरे में,
नहीं आंच है गीता पे, न कुर-आन खतरे में,
खतरे में अगर है तो है इंसान खतरे में।

भड़का रहे हमें-तुम्हें, बेईमान खतरे में,
लगती है जिन्हें अपनी अब दुकान खतरे में,
न हिन्द खतरे में, न मुसलमान खतरे में,
खतरे में अगर है तो है इंसान खतरे में।

करो कुछ यों, न रहे देश किसी खौफ़-खतरे में,
बेटियाँ पलें अपने नूरानी नाजो-नखरे में,
रख के दिल पे हाथ बोले, यह ज़ुबान जिक्रे में,
खतरे में अगर है तो है इंसान खतरे में।

05 सितंबर 2014                         ...अजय 

Thursday, 7 August 2014

बरबादियों के जश्न का...

बरबादियों के जश्न का...


बरबादियों के जश्न का, ले, ... कारवाँ चले,

मेरे दर से आज मेरे, ...मेहरबाँ चले॥


इस बाग के गुलों में..., खुशबू...जो थी उनकी,

सबको समेट कर के मेरे, ...बागबाँ चले॥


माटी कुरेद कर के बनाई थीं क्यारियाँ,

फूलों को रौंदते हुए, ...जाने कहाँ चले॥


हमको यकीन था कि सर पे, ...एक फ़लक है,

पल में हटा के सर से मेरे, ...आसमाँ चले॥


हमने लिखा था 'घर' जिसे, अपनी किताब में,

किस बेरुखी से कह के उसे, ...वे मकाँ चले॥ 

06 अगस्त 14                         ...अजय। 

Friday, 25 July 2014

वो आ रहे हैं मिलने...

वो आ रहे हैं मिलने...

कोई कर दे ख़बर जाकर, ख़बर-नवीस को,
वो आ रहे हैं मिलने, मुझसे पचीस को।

जब से मिली खबर ये, दिल बाग-बाग है,
मैं जानूँ कि, शायद ये खबर है अनीस को। 

हम देखते हैं रहे जो, आँखों मे भर के ख़्वाब,
सच कर के दिखाएंगे, वे खुद से पचीस को।

हमने बसर किए हैं, तन्हाइयों के दिन,
आसान वो कर देंगे, आकर अवीस को।

ईमान कि कसम, बस हमको उनसे प्यार है,
कर लो यकीनाज ऐलान-ए-अफीफ़ को। 

24 जुलाई 14                            ...अजय।
(खबर नवीस=संवाददाता,अनीस=दोस्त,  
अवीस=मुश्किल, अफीफ़=पत्नीव्रत) 

Monday, 21 July 2014

बरसेला बदरा बेजार...

बरसेला बदरा बेजार...
(भोजपूरी रचना )

चुए लागल, छन्हीया से पानी .....सइयाँ कहाँ बानी,
बरसेला....... बदरा बेजार .........रऊआं कहाँ बानी।

जेठ भरि हमरा के,... घामवाँ तपवलीं,सइयाँ कहाँ बानी,
आसढ़ा में ...दिहलीं बिसार,......रऊआं कहाँ बानी। 

केतने महीनवाँ से,.... आसरा सजवलीं,सइयाँ कहाँ बानी,
परे लागल,...सावन के फुहार,......रऊआं कहाँ बानी।


देखा-देखी भूखे लगलीं,....करवा-चऊथिया, सइयाँ कहाँ बानी,
कब होई पारन हमार, रऊआं कहाँ बानी।

साथे के सहेलिया हमरी भईलीं लरिकोरिया, सइयाँ कहाँ बानी,
कब सजी,... गोदिया हमार,......रऊआं कहाँ बानी। 

चुए लागल, छन्हीया से पानी .....सइयाँ कहाँ बानी,
बरसेला....... बदरा बेजार .........रऊआं कहाँ बानी।


20 जुलाई 14                                        ...अजय। 

Saturday, 5 July 2014

हमके भावे भोजपूरी लहरदार ...

हमके भावे भोजपूरी लहरदार बोलिया ...

लहरदार बोलिया,लहरदार बोलिया, लहरदार बोलिया,
हमके भावे भोजपूरी, लहरदार बोलिया,
हमके भावे भोजपूरी, लहरदार बोलिया।

बगिया की गंछिया पे कुहुकत कोइलिया,
खेतवा की मेढ़वा पे, बलखत गुजरिया,
गाँव के सिवाने से, उठत डोलिया,
हमके भावे भोजपूरी, लहरदार बोलिया।

मथवा पे पल्लू असिरबाद जस सोहे,
सीने पर दुपट्टा हमरी बिटियन  के मोहे,
सजे बहुअन की देहीं, रंगदार चोलिया,
हमके भावे भोजपूरी, लहरदार बोलिया।

बिरहा के धुन भावे, भावेला सोहरिया,
फगुआ चुहुलदार, और चइता कजरिया,
गांवे - गांवे बिचरत, भजन टोलिया,
हमके भावे भोजपूरी, लहरदार बोलिया।

खिंचड़ी नहान, सतुआनि मन भावे,
छट्ठ के अरघ, सूर्यदेव के मनावे,
तन-मन रंग दे, रंगदार होलिया,
हमके भावे भोजपूरी, लहरदार बोलिया।

05जुलाई14                                 ...अजय। 

Thursday, 26 June 2014

दिन बीता तो आई रैना ...

दिन बीता तो आई रैना ...

दिन बीता तो आयी रैना, मेरी नींद उड़ाने को,
उनकी यादों मे भर आयीं, अँखियाँ नीर बहाने को।

पीपर पात सरिस मन डोले, बे-मौसम बरसातों मे,
दीपक बन कर तरसाये है, वो प्रिय हिय-परवाने को।

जेठ की तपी दुपहरी में भी, हमने जिसकी राह तकी,
सूखे होंठों को न मिला वो, जल दो घूँट पिलाने को।

बरखा की बूँदों की टिप-टिप, प्यासी धरती छेड़ गयी,
फिर आयीं मदमस्त फुहारें, बिरहन को तड़पाने को।

आकुल मन करता मनुहारें, साजन अब तो आ जाओ,
जी न सकेंगे अब हम तुम बिन, जीवन के वीराने को। 

दिन बीता तो आयी रैना, मेरी नींद उड़ाने को,
उनकी यादों मे भर आयीं, अँखियाँ नीर बहाने को।

25 जून 2014                                                            ...अजय।  

Wednesday, 25 June 2014

आँख का नूर...

आँख का नूर ....

कोई शख्स सब की आँखों का नूर नहीं है;
इसमे तेरा या मेरा कुसूर नहीं है;
नज़रें अपनी हैं नज़ारे भी हैं अपने अपने;
मगर खुदा से हटकर कोई मशहूर नहीं है।

23 जून 14                            ...अजय।


शांति-दूत...

शांतिदूत
लेकर आया पुष्प रंगीला,
पंछी प्रेम सनेसे वाला;
शांति,शुद्ध,निर्मल काया में, 
सजा धवल यह दूत सजीला॥
२४/०६/१४ ...अजय।

Tuesday, 24 June 2014

आदाब अर्ज़ है...

आदाब अर्ज़ है...

भाई साहब, आदाब अर्ज है ...
बहन जी, आदाब अर्ज़ है...

अरे! ये क्या? सारा का सारा ठीकरा,
औरों के सर ही फोड़ आओगे क्या ?
या फिर, थोड़ी बहुत जिम्मेवारियाँ,
आप अपने सर भी उठाओगे क्या ?
आपका भी अपना, कुछ  तो फ़र्ज़ है.....
...भाई साहब, बहन जी..........आदाब अर्ज़ है।

भाई साहब, आदाब अर्ज है ...
बहन जी, आदाब अर्ज़ है...
अरे रे रे रे रे! ...जरा सम्हल कर बेटे,
बाइक पर निकले, तो हेलमेट ले लेते,
खैर, इसे आराम से चलाओ तो भी चलेगी,
अपनी कमर न डुलाओ, तो भी ये हिलेगी,
सेफ़्टी से  चलने मे क्या हर्ज है ?
 ...भाई साहब, बहन जी..........आदाब अर्ज़ है।

भाई साहब, आदाब अर्ज है ...
बहन जी, आदाब अर्ज़ है...
आज चुनाव का दिन है, आप वोट तो देंगे?
मज़हबी,जातवाले को? या बहते नोट को देंगे?
पड़ोसी गाँव का वो छोकरा, मशहूर नहीं है...
कमजोर है, गुंडा नहीं, मगरूर नहीं है,
नेताजी को ही आप से कल, कौन गर्ज है?
...भाई साहब, बहन जी..........आदाब अर्ज़ है।

भाई साहब, आदाब अर्ज है ...
बहन जी, आदाब अर्ज़ है...
उनके घर मे यदि हुई तो ये महामारी है,
नज़ला भी अगर हो तो अँग्रेजी बीमारी है,
यहाँ वैसी बीमारी का हस्पताल नहीं है...
अगर है तो फिर 'स्विस बैंक' या पाताल में ही है,
जनता को कहाँ जानलेवा कोई मर्ज है ?
...भाई साहब, बहन जी..........आदाब अर्ज़ है।

23 जून 14                                                 ...अजय।   

खार...

खार ...



ये खार नहीं हैं यार हैं जो एहसास दिलाते रहते हैं .....
गद्दों ने तो मदहोश किया, ये प्यार जताते रहते हैं ॥22/06/14

Wednesday, 18 June 2014

बेनाम रिश्ते ...

ये  घाव पुराने हैं ...

बेनाम ही सही ये, फिर भी रिश्ते तो हैं।   
हैं घाव पुराने ये मगर, रिसते तो हैं॥

अब आप ही बताइये, घुनों का क्या क़ुसूर ?
गेहूं के साथ हैं, जनाब पिसते तो हैं...
बेनाम ही सही ये, फिर भी रिश्ते तो हैं।   
हैं घाव पुराने ये मगर, रिसते तो हैं॥ 

बिस्तर की चादरों सी, है तमाम जिंदगी...
बेदाग भी रहें तो रोज, घिसते  तो हैं...
बेनाम ही सही ये, फिर भी रिश्ते तो हैं।
हैं घाव पुराने ये मगर, रिसते तो हैं॥

"बादाम" न मिल पाएँ इसका हमको गम नहीं...
बच्चों की मुट्ठियों मे, सूखे पिस्ते तो हैं...
बेनाम ही सही ये, फिर भी रिश्ते तो हैं।   
हैं घाव पुराने ये मगर, रिसते तो हैं॥

फ़लक की सीढ़ियों का हमें, ख्वाब भी न था...
बुनियाद के पत्थर में नाम दिखते तो हैं...
बेनाम ही सही ये, फिर भी रिश्ते तो हैं।   
हैं घाव पुराने ये मगर, रिसते तो हैं॥

18 जून 2014                          ...अजय। 

Wednesday, 21 May 2014

पत्ता-पत्ता रस से भींजे...

पत्ता-पत्ता रस से भींजे...


पत्ता-पत्ता रस से भींजे, जब अमियाँ  बौराती हैं, 
दिल के तार खनकते हैं जब, वो बगिया में आती हैं। 

सबा नशीली होती है और, शब की नींदें जाती हैं,
तिनका-तिनका गज़ल पढे जब, वो मौसम बन आती हैं,
पत्ता पत्ता रस से भींजे...... 

महुए सी रस से बोझिल जब, वो आगोश मे आती हैं,
धक-धक करती दिल की धड़कन, भी संगीत सुनाती हैं,
पत्ता पत्ता रस से भींजे...... 

20 मई 2014                                          ...अजय। 

Thursday, 15 May 2014

बिहान हो गइल...

बिहान हो गइल...
(...एक भोजपूरी उम्मीद )


सूखल पोखरा में पानी के निदान हो गइल,
चल_अ, उठ_अ, छोड़ चादारा, बिहान हो गइल।

हाथे के लकीर लखत, दिनवाँ बितवल_अ,
केहू सुधि लेई कबो....सपना सजवल_अ,
देख_अ  पोखरा में कमल के उफान हो गइल, 
चल_अ, उठ_अ, छोड़ चादारा, बिहान हो गइल।

बाबा विस्वनाथ तोहार लालसा पुरवलें,
ख़ाक से उठा के तोहके माथ पर सजवलें,
पूरन कर सब सपनवा, दिल जवान हो गइल,
चल_अ, उठ_अ, छोड़ चादारा, बिहान हो गइल।

खुसुर-पुसुर बंद, अब जलवा देखा द,
हमलावरन के, सही रास्ता चेता द,
देश कर _अ शक्तिशाली, ई ऐलान हो गइल,
चल_अ, उठ_अ, छोड़ चादारा, बिहान हो गइल।

15 मई 2014                                      ...अजय।  

Monday, 12 May 2014

अज़ीज़ सी कशिश...

अज़ीज़ सी कशिश...


बसे वो ऐसे, मेरी रूहो-खयालातों में,
कि जिक्र रह-रह के, आ जाये, बातों बातों में।

हज़ार ताने सहे हमने, लाख फ़िकरे सुने,
डोर फिर भी, सौंप आए, उन्हीं हाथों में।

जिधर नज़र गयी, उधर ही वो, नज़र आए,
ऐसा चश्मा है, मुँदी आँखों में।

न जाने कौन सी, खुशबू से, लबरेज हैं वो,
एक अज़ीज़, सी कशिश है , मुलाकातों में। 

टूटे ख़ाबों ने, जग कर, इधर-उधर झाँका,
दिल में सोया था, किसे आता नज़र, वो रातों में। 

11 मई 2014                                                ...अजय। 

Thursday, 27 March 2014

मुझे दीदार चाहिए...

मुझे दीदार चाहिए ...

ऐ यार, मुझे यार का दीदार चाहिए,
बहती हवा में, बस जरा सा प्यार चाहिए। 

कहने को दोस्तों की भीड़........चैन नहीं है,
जो दिल को दे सुकून, वो संसार चाहिए।

गुलशन तो है गुलज़ार ये, दुनिया के गुलों से,
वो गुल जो छेड़ जाये, दिल के तार, चाहिए।

सुलगा गयीं अगन, कुछ बरसात की बूंदें,
शीतल करे वो, सावनी बौछार चाहिए।

ऐ यार, मुझे यार का दीदार चाहिए,
बहती हवा में, बस जरा सा प्यार चाहिए।

जगमग तमाम अजनबी चेहरों से ये शहर,
हमको हमारे गाँव का बाज़ार चाहिए।

सप्ताह का हर दिन तो भागम-भाग में काटा,
हम सबको पुरसुकून एक इतवार चाहिए।

18 अगस्त 2013                                        ...अजय 

Wednesday, 5 March 2014

दाम्पत्य...

दाम्पत्य......

मैं उनसे लड़ी थी, वो मुझसे लड़े थे,

अपनी मनाने पर दोनों अड़े थे ...

कनखियों से जो देखा छुप छुप कर दोनों ने,

"मैं" लघु हो गया... और हम दोनों बड़े थे।


05 मार्च 2014                              ...अजय 

सम्हल के रहना ऐ चाँद

सम्हल के रहना ऐ चाँद ज़रा 

चटोरियों कि नज़र, चटक स्वाद पर है,
बिल्लियों की नज़र, चूहों की माँद पर है,
उन्मादियों की नज़र, बढ़ते उन्माद पर है,
सम्हल के रहना ऐ चाँद जरा… 
चकोरों की नज़र तो…  बस चाँद पर है।  

खबरनवीसों की नज़र, चटखारे विवाद पर है,
किसानों की नज़र, कृत्रिम खाद पर है,
पुजारी की नज़र, चढ़ रहे प्रसाद पर है,
सम्हल के रहना ऐ चाँद जरा…
चकोरों कि नज़र तो…  बस चाँद पर है।

आरक्षण की नज़र, जातिवाद पर है,
असमाजियों की नज़र, समाजवाद पर है,
आतंकियों की नज़र आतंकवाद पर है,
सम्हल के रहना ऐ चाँद जरा…
चकोरों कि नज़र तो…  बस चाँद पर है।

 04 मार्च 2014                                         ...अजय 

Saturday, 8 February 2014

वह चली गयी ...

वह चली गयी … 
(सासू- माता  के देहावसान पर)


कुछ फूल खिलाये थे अनुपम, उसने अपने बागीचे में,

उनमें से एक मिला मुझको, सजता है मेरे दरीचे में.

मालिन थी वह, मलकिन भी थी, माली का बाग़ रखाती थी, 
बगिया के पुष्प सिंचे उससे, माली के ख्वाब सजाती थी.

परवाह न की उस माटी की,जो हाथों में लग जाती थी,
उसको भी वह श्रृंगार मान, अपनों के लिए सजाती थी.

सहती थी नखरे, नाज़ों-गम , सबको सप्रेम खिलाती थी,
खुद रहती थी बीमार मगर,सबके माथे सहलाती थी.

वह जो भी थी, जैसी भी थी,…अंजुमन की शम्मा थी,
जो चाहे उसको तुम कह लो, वह इन पुष्पों की अम्मा थी.

वह चली गयी इस बगिया से, सब पुष्प बुझे मुरझाये हैं,
काले बादल बरसातों के, …कुछ इन आखों में छाये हैं.

२३ जनवरी २०१४                                                                    …अजय. 

Saturday, 18 January 2014

का मनाईं खिचड़ी...

 का मनाईं खिचड़ी … ?

दंगा में घर गाँव गंववलीं, राजनीति में पगड़ी
घाव केहु ना देखे मन के, जांचे "अगड़ी" "पिछड़ी"
का मनाईं  खिचड़ी ?… का मनाईं खिचड़ी।

छूए के ना "सीधा"-"पईसा" ,  बाँटे के ना रेवड़ी,
मुँह धोवे के पानी मुश्किल, ओढ़े  खातिर गुदड़ी,
का मनाईं  खिचड़ी ?… का मनाईं खिचड़ी।

हम ना पढीं अ,आ, इ, ई.…मुखिया पढ़ें बिदेसी,
घूमि घूमि कम्प्यूटर बाँटें, जरे ना घर  में ढेबरी,
का मनाईं  खिचड़ी ?… का मनाईं खिचड़ी।

 रहे के ठेकाना नइखे, तम्मू  गयी उखारी,
ना केहू बतिया सुने वाला, काज ना कोई दिहाड़ी,
का मनाईं  खिचड़ी ?… का मनाईं खिचड़ी।

दुःख  से हिया फाटे हमरो, के से रोईं दुखारी,
वोटवा माँगे आवें जवन,  उहो मारे लंगड़ी,
का मनाईं  खिचड़ी ?… का मनाईं खिचड़ी। 

 14 जनवरी 2014                                        …अजय। 

Thursday, 9 January 2014

अकेलापन...

अकेलापन... 

मैंने अकेलेपन को जब देखा करीब से,
वह भी लगा हारा हुआ अपने नसीब से।

वे खुश रहें, खिलते रहें,बस चाहता है वो,
अपनों के वास्ते, स्वयं को पालता है वो।

दो शब्द अपनेपन के पड़े, उसके कान में,
वह टूट कर बिलख पड़ा, दिल के उफ़ान में।

"क्यों छेड़ते हो यार"... वह कहने लगा मुझसे,
सब जानते ही हो, फिर कैसा गिला, किससे?

आए भी थे तनहा यहाँ......जाना भी तनहा ही,
अकेलेपन से क्यों शिकवा, अकेलापन भी तनहाई।

ये तनहाई ही है जो, उनकी यादें साथ लाती है,
अकेलेपन में भी हमतक, सितारे-चाँद लाती है।

हजारों लोग नज़र में, अकेला फिर भी क्यों है मन,
कोई जो मन मे बसता है, उसी से है ये खालीपन।

08 जनवरी 2014                                                      ...अजय। 

Tuesday, 31 December 2013

धन्य कुर्सिया....

धन्य कुर्सिया...

मैं मीरा, तुम श्याम, कुर्सिया...

मैं मीरा तुम श्याम ।

आनि परो, मोरी झोरी में,

कछु न मिले जोरा-जोरी में,
जपहुँ नित्य तव नाम, कुर्सिया...
मैं मीरा तुम श्याम...
मैं मीरा, तुम श्याम कुर्सिया,
मैं मीरा तुम श्याम।

भांति-भांति की, काया तोरी,

जानत हैं सब, माया तोरी,
भांति-भांति के दाम, कुर्सिया...
मैं मीरा तुम श्याम...
मैं मीरा, तुम श्याम कुर्सिया,
मैं मीरा तुम श्याम।

आजीवन, तुम्हरे गुण गाउँ,

तोहरे आगे, शीश नवाऊँ,
निशि-दिन करूँ सलाम, कुर्सिया...
मैं मीरा तुम श्याम...
मैं मीरा, तुम श्याम कुर्सिया,
मैं मीरा तुम श्याम।

ग्वाल-बाल सब, फेर परे हैं,

दिवस-राति, सब एक करे हैं,
कइसहुँ बनि जाये काम, कुर्सिया...
मैं मीरा तुम श्याम...
मैं मीरा, तुम श्याम कुर्सिया,
मैं मीरा तुम श्याम।

मैं तुम्हरी,चुनरी सजवा दूँ,

भव्य एक मंदिर बनवा दूँ,
आनि बसो मोरे ग्राम,कुर्सिया...
मैं मीरा तुम श्याम...
मैं मीरा, तुम श्याम कुर्सिया,
मैं मीरा तुम श्याम।

धारक तोहरे,खूब सोहाते,

मूरख भी, पंडित बन गाते,
जाकर तोहरे धाम, कुर्सिया...
मैं मीरा तुम श्याम...
मैं मीरा, तुम श्याम कुर्सिया,
मैं मीरा तुम श्याम।

तुम हो तो, जीवन में क्या कम,

दूर जात सब कष्ट, दरद, गम,
शत- शत तुम्हें प्रणाम, कुर्सिया...
मैं मीरा तुम श्याम...
मैं मीरा, तुम श्याम कुर्सिया,
मैं मीरा तुम श्याम।

30 दिसंबर 13     ~अजय 'अजेय'।

Tuesday, 24 December 2013

बनाइब हम तोहरा के ...

बनाइब हम तोहरा के गंवही से नेता...
(एक भोजपूरी रचना)

का करब जाके, सहरिया हो बेटा,
बनाइब हम तोहरा के... गंवही से नेता,
बनाइब हम तोहरा के...

खा-पीय, मौज कर... मस्ती तू काट,
जेकरा के मन करे ओकरा के डाँट...
अइसन बनाव बेयरिया हो बेटा,
बनाइब हम तोहरा के...गंवही से नेता,
बनाइब हम तोहरा के...

जा के सहर में तूँ दिन-रात खटब,
कबो कौनों पाठ, कबो पुस्तक तूँ रटब...
नाहिं मिली तब्बो, नोकरिया हो बेटा,
बनाइब हम तोहरा के...गंवही से नेता,
बनाइब हम तोहरा के...

बनिके कलेक्टर तूँ केतना कमाइब,
नेता जो बनल त नोट से तौलइब...
भरि जाई घरवा, दुअरिया हो बेटा,
बनाइब हम तोहरा के...गंवही से नेता,
बनाइब हम तोहरा के...

जो बनि जइब तूँ एस पी, कमिसनर,
जीनिगी गुजरि जाई रटि-रटि "यस सर"...
कौनो आई दे जाई, गरिया हो बेटा,
बनाइब हम तोहरा के...गंवही से नेता,
बनाइब हम तोहरा के...

छोड़ मोह सहर के, गँउए से पढ़ि ल,
अगिला चुनाव तूँ विधायकी के लड़ि ल...
गाड़ी-बत्ती मिली, सरकरिया हो बेटा,
बनाइब हम तोहरा के...गंवही से नेता,
बनाइब हम तोहरा के...

सी एम तूँ बनिह हम पी एम बनि जाइब,
काका के हम तोहरी, महा-महिम बनाइब...
"फर्स्ट लेडी" तोहार, महतरिया हो बेटा,
बनाइब हम तोहरा के...गंवही से नेता,
बनाइब हम तोहरा के... 

23दिसंबर १३                             ...अजय । 

Saturday, 14 December 2013

हाँ जलता हूँ

हाँ ...जलता हूँ...

वो कहते हैं... मैं जलता हूँ , हाँ ...जलता हूँ।
जब वे बाहों मे बाहें डाले फिरते हैं,
और मैं तनहा चलता हूँ...
हाँ, ...जलता हूँ।

वे हँसते हैं, वे गाते हैं, वे सारे जश्न मनाते हैं 
सब साथ बैठ कर प्रेम से बातें करते हैं ...
मैं खाली हाथ मसलता हूँ ...
हाँ, ... जलता हूँ।

कोई खाता है , कोई पीता है,हर शख्स यहाँ पर जीता  है,
जब प्रेम के पंछी मिल, कोलाहल करते हैं,
मैं मौन के घूंट निगलता हूँ, 
हाँ जलता हूँ.....

वे तोलते हैं मैं तुलता हूँ , हर रोज तराजू चढ़ता हूँ,
जब प्रेम से वो अपनों के गले से लगते हैं,
मैं रोज स्वयं को छलता हूँ 
हाँ, ...जलता हूँ।

13 दिसंबर 2013                                      ...अजय

Thursday, 28 November 2013

धर्म या ढोंग ?

धर्म या ढोंग ...?

यह धर्म है ?... तो क्या हो अधर्म बोलिए,
प्रवचन-भजन की आड़ में कुकर्म बोलिए।

पावन, सनातनी पहन के धर्म का चोला,
कोयल की मधुर धुन में, है काग जो बोला,
छद्म-वेशधारियों को  तो बेशर्म बोलिए,
प्रवचन-भजन की आड़ में कुकर्म बोलिए,
यह धर्म है ?... तो क्या हो अधर्म बोलिए


इंसान है शैतान बन गया गुरूर में,
है फिर रहा मदहोश हो के वह सुरूर में,
जो शैतान बन गए हैं उनके राज खोलिए,
प्रवचन-भजन की आड़ में कुकर्म बोलिए,
यह धर्म है ?... तो क्या हो अधर्म बोलिए

कैसे करेगा भरोसा कोई किसी पे कल ?
सन्यासियों के मन भी अगर हो रहे चंचल,
क्यों भई ढोंग की हवा है गर्म बोलिए,
प्रवचन-भजन की आड़ में कुकर्म बोलिए,
यह धर्म है ?... तो क्या हो अधर्म बोलिए

22 नवंबर 2013                                        ...अजय। 

Monday, 18 November 2013

चाँद की यादें

चाँद की यादें...

चाँद गुजरा था, एक रोज, मेरी छत से कभी,
चाँदनी आज भी, तब से, यूं सताती है मुझे।

फूल जो सूख गए थे, रखे किताबों में,

उन से उन हाथों की, हल्की महक, आती है मुझे।

चिट्ठियाँ उसने, लिखी थीं, ...मौन चेहरे से,

पढ़ नहीं पाया, मगर वो अब, याद आती हैं मुझे।

राह कच्ची सी,.... जिस पर वो गुजरते थे कभी,
पय-दर-पय, फिर वही राह, बुलाती है मुझे।

दिल तो कहता है कि, एक रोज मिलेंगे वो फिर,

न जाने कौन सी शै है,... जो डराती है मुझे।

ये भी अच्छा ही हुआ,... कि वो मेरा न हुआ,

तभी तो उसकी, हर अदा, याद आती है मुझे।

 17 नवंबर 13                                               ...अजय।  

Friday, 18 October 2013

पियवा गइल परदेस

पियवा गइल परदेस ...
(एक भोजपूरी  रचना )

मोरे पियवा गईल परदेस, का करीं
मति धरें कहीं बाबावा के भेस, का करीं।

रोकि नाहि पवलीं कि, जालें ऊ कमाए,
समझाईं मनवां के, समझी ना पावे,
कइसे धोईं अपने मन के,... कलेस का करीं,
मति धरें कहीं बाबावा के भेस, का करीं।

राम जाने कइसन, कवन जुग आइल,
केहि पर भरोसा करीं, जग पगलाइल,
लागे गड़हा  में जाई,... अब ई देस, का करीं,
मति धरें कहीं बाबावा के भेस, का करीं।

बिसरे न मनवां से, उनकर  सुरतिया,
शिवजी हमार, हम उनकी परबतिया,
जनि रूसे कबो हमसे,... मोर महेस का करीं,
मति धरें कहीं बाबावा के भेस, का करीं।

अइहें त गंगा जी के, चुनरी चढ़ाइब,
जवन जवन कहिहें, बना के ऊ खियाइब,
पूजब उनके हम बनाके,... गनेस का करीं,
मति धरें कहीं बाबावा के भेस, का करीं।

बाबूजी कि मथवा के पगरी, तूँ धरिह,
अम्मा जी की आसा के, निरासा जनि करिह,
भेजीं हम रोजे,... ई सनेस का करीं,
मति धरें कहीं बाबावा के भेस, का करीं।

मोरे पियवा गईल परदेस, का करीं
मति धरें कहीं बाबावा के भेस, का करीं।

18 अक्तूबर 2013                                 ...अजय। 

Wednesday, 16 October 2013

मैं कमल हूँ...


मैं कमल हूँ...


धूल में लिपटा रहूँ या पंक से सनूँ ,
हूँ कमल मैं, और हर दम ही खिला रहूँ 

धूप हो या छाँव हर मौसम में मैं हँसूं
रंक हो या नृप सभी के हृदय में बसूँ 

मंदिरों में मूर्तियों की अर्चना जब हो
देवता और देवियों की प्रार्थना जब हो 
धूप और दीप की प्रतिअर्पना जब हो
पुष्प और प्रसाद के संग मिल के मैं चढूँ

गम में कोई डूबे तो उसको हौसला मैं दूं
जो हो कोई मजबूर, उसको आसरा मैं दूँ
दुःख दर्द के वनों को सदा काटता चलूँ 
खुद खुश रहूँ मैं  और ख़ुशी बांटता चलूँ 

२५ अगस्त १२                            ...अजय। 

Thursday, 10 October 2013

बस प्यार है...

बस प्यार है...

जरा देखिये मेरे यार का ये मेल, कितना धांसू है,
कि चेहरे पे फर्जी गुस्सा, और आँखों मे छुपा आँसू है 
इसे क्या नाम दूँ, .... मैं समझ ना पाऊँ
कभी उसको मैं देखूँ , और कभी नज़रें झुकाऊँ
आप अपनी राय दें, ....मुझे तो एतबार है,
ये और कुछ नहीं, ये तो बस प्यार है।

10 अक्तूबर 13                                           ...अजय । 

Wednesday, 9 October 2013

शिकायतों का दौर

शिकायतों का दौर...

चलता रहा शब भर, शिकायतों का दौर कुछ यूँ,
कि होश में आते ही बस, सहर हो गयी,
वो टूट कर बरसे मेरी बाहों में, इस कदर,
कि फेहरिश्त खुद ही घुल के बेनज़र हो गयी।

 09 अक्तूबर 13                                            ...अजय 

Tuesday, 1 October 2013

अंततः

अंततः...

कोई साथ न लेकर कभी लाख, करोड़ गया,


सांस छूटी तो हर कोई सब कुछ छोड़ गया....


बटोरता रहा सारी ज़िंदगी जिस शख्स के लिए,


वही अंततः चिता पे, सर को फोड़ गया।


01 अक्तूबर 13                                              ....अजय ।  

Monday, 9 September 2013

जय हिन्द का नारा

जय हिन्द का नारा
जय हिन्द का ये नारा, लगा लीजिये
इस परंपरा को जिंदगी, बना लीजिये
क्या रखा मजहब -ओ- संप्रदायवाद में
कुछ भाई-चारा भी, निभा लीजिये।

इस हिन्द की माटी में है, तन को सँवारा

बहे रक्त हिन्द का, ये है किसको गंवारा
नमक देश का है शामिल, थाली में हमारी
इस नमक का ही हक़, जरा चुका दीजिये।

है जल उठी धरा, हमारे मन की जलन से

सुलग रहा समाज है, हिंसा की अगन से
हो मन में अगर प्यार जरा, अपने वतन से 
तो मन को "सरस्वती-जल", पिला दीजिये।

हिन्द है तो हैं हम, ये ज़हन में रहे

हिन्द का हित सदा, स्मरण में रहे 
ना हो धूमिल चमक, इस चमन की कभी
मैल अपने दिलों का बहा दीजिये।

जय हिन्द का ये नारा लगा लीजिये

इस परंपरा को जिंदगी बना लीजिये।
09 सितंबर 2013        ~अजय 'अजेय'।

Saturday, 7 September 2013

पुनर्मिलन की साँझ...

३१ अगस्त की शाम...
(पुनर्मिलन की साँझ)

आज की शाम...सज गयी, किसी दुलहिन की तरह,
बीते तीस साल,...... तीस दिन की तरह।

ऐसा लगता है, कल की बात हो ये ...
जब मिले हम थे ,...अजनबी की तरह।

दस महीनों के, ......साथ ने बांधा,
जैसे हों जेल के,........ संगी की तरह।

छूट कर आज मिल रहे हैं, गले लग-लग के
कैसे एक डाल के,...पंछिन की तरह।

जो बिछड़ गए,... वो भी जिंदा हैं,
दिलों मे आज, तिश्नगी (प्यास) की तरह।

अब न छूटेगा साथ ये,... किसी हालत मे भी,
हम तो साथी हैं ,....रात- दिन की तरह।

31 अगस्त 2013 (दिल्ली)                           ... अजय। 

Monday, 5 August 2013

इंसानियत की बात करें

इंसानियत की बात करें ...
(15 अगस्त के शुभ अवसर हेतु )

किसलिए हम हिन्दुत्व, मुसलमानियत की बात करें,

हिन्दुस्तानी हैं तो.... हिंदुस्तानियत की बात करें।

बाँटने को हमको तो, यहाँ  हाजिर हैं हजारों,

आओ एक होकर कुछ ... इंसानियत की बात करें।

कोई "जात" उछालता, कोई "मजहब" की गाता है,

भारत के निवासी हैं तो ... भारतीयत की ही बात करें।

जो तोड़ने आयें हमें... हम उनको तोड़ दें, 

जुड़ने की करो बात तो, हम सियासत की बात करें।

निरपेक्षता के नाम का , रोना है बेमानी,
सर्व-धर्म का सम्मान, और साहचर्य आत्मसात करें।

हो पंदरह अगस्त, या छब्बीस जनवरी,

भयहीन हों सब जश्न , क्यूँ कुर्बानियत की बात करें।

जो हैं हमारे साथ, सब हिन्दोस्तां के हैं 

जगाकर आज ये जज़्बा हम एकात्मीयत की बात करें।

शामिल है नमक खून में, भारत की भूमि का,

आओ इस नमक के, हक़-अदाइयत की बात करें।

चोरों की तरह घात करना हमको ना आया,

दोगली जुबान नहीं, खुल्लम-खुल्ला बात करें।

05 अगस्त 2013                              ...अजय।