Saturday, 2 June 2018

इम्तिहान है बाक़ी


इम्तिहान है बाक़ी...

मत हो अभी, यूँ मेहरबान साक़ी,
दर्द का कुछ, इम्तिहान है बाक़ी।

उनकी महफिलें, चली हैं रात सारी,
सुबह की तो मेरी, अजान है बाकी।

हर मोड़ पर तो, मैं ही दो क़दम चला,
फ़ासला फिर क्यों, दरमियान है बाकी।

तफ्सील से सुनीं, हमने बातें उनकी,
कोई तो सुनो,मेरे, सुर्खियान है बाकी।

जो भी होगा, है फ़ैसला हमें क़ुबूल यारों,
मगर अभी तो, अपना बयान है बाकी।

किसी को हो तो हो, ग़ुरूर महलों का,
मेरे छप्पर की अभी, कुछ तो शान है बाकी।

02 जून 18                      ~~~अजय।

Saturday, 26 May 2018

डॉ सुरेंद्र कुमार गिरि

वह...(गिरि सुरेंद्र)
वह जन्मा था "केसरी, सारण",
वह शख्स नहीं था साधारण,
उसकी एक संत सी हस्ती थी,
कर्मस्थलि जिसकी "बस्ती" थी।

वह वृक्ष वृहद् , सम-पीपल था,
वह घट के जल सा शीतल था,
जिसके साये हम पले, बढ़े,
वह स्वर्ण था, ना कि पीतल था।

कस्तूरी थी उसके भीतर, 
जिससे वह दमका करता था,
रस्ते कितने भी विषम हुये,
वह राह न भटका करता था।

माली सींचें अपने पौधे,
वह माली सींचा करता था,
जब तक न पूरण हों मकसद् 
वह कदम-कदम संग चलता था।

पदचाप गूंजती रहती थी,
इस घर के कोने-कोने तक,
रस भरता था वह भोजन में,
इस थाली से उस दोने तक।

अब ! गर्मी वही, वही पाला,
है कुर्सी वही, वही आला,
खो गई कहीं वह प्राण-वायु,
खो गया कहीं वह रखवाला।

तकती है राह, जमीं उसकी,
खलती है आज कमी उसकी,
है गली मुहल्ला सून पड़ा,
फैली है आलम में सिसकी।
  🙏  🙏  🙏  🙏  🙏 

25 मई 18          ~~~अजय।

Sunday, 6 May 2018

दो नैन

दो नैन...

दिल में चुभते हुये ये ख़ंजर हैं,
दो नयन ग़ज़ब के सुंदर हैं।

ठहरते हैं मुसाफ़िर, पुरसुकून पाने को,
ये साहिल नहीं, गाह-ए-बंदर हैं।

डूब जाने को जिनमें, हम आकुल,
चश्म नहीं फ़क़त, ये समंदर हैं।

न देखें तो बढ़ जाती है, बेचैनी दिल की,
देख लूँ  तो, तूफ़ान-ओ-बवंडर हैं।

अब तो रखता हूँ बंद, मैं ये आँखें मेरी,
समेटे जिनमें, बला के मंज़र हैं।

05 मई 18.            ~~~अजय।

Monday, 30 April 2018

कहाँ कहाँ देखा...

कहाँ कहाँ देखा...

क्या बताऊँ, कहाँ कहाँ देखा,
जहाँ गया, उसे वहाँ देखा।

गली, कूचा, शहर का हर कोना, 
उसकी चाहत में, मैंने जहाँ देखा।

किताबें छान कर, सारे जहाँ की,
सफ़े सफ़े पे उसका निशाँ देखा।

हर भीड़, हर मजमा, हर मजलिस में शिरकत,
गुज़रते पास से मैंने, हर कारवाँ देखा।

मैं तलाशता फिरा जिस शख़्स को अब तक,
उसकी आँखों में मैंने क्या देखा।

यूँ ही नहीं ये दीवाना, हुआ है दिल,
जुबाँ जुबाँ पर उसका बयाँ देखा।


30 अप्रैल 18.            ~~~ अजय।

Tuesday, 20 March 2018

पतझड़ का पत्ता

पतझड़ का पत्ता...

मैं पतझड़ का पीला पत्ता,
पका-पका सा दिखता हूँ,
साँसें फूली जातीं मेरी,
थका-थका सा लगता हूँ।

जब मैं हरा-हरा होता था,
रस से भरा-भरा होता था,
अब रसहीन हुआ बदरंगा,
शाख़ पे अटका लगता हूँ।

जब से हरियाली पाई है
मैं पालता सबको आया हूँ,
आज ज़रा जो उम्र ढली,
आँखों में खटका लगता हूँ।

कभी मैं आँखों का तारा था,
मुझको सबने पुचकारा था,
जर्जर हुआ, आज सूखा मैं,
राही भटका लगता हूँ।

जीवन की तो रीत यही है,
सच्ची कोई प्रीत नहीं है,
जब तक रस से भरा हुआ हूँ,
आम पका सा लगता हूँ।

दुखी न होना ऐ मेरे मन,
हर उपवन का यह ही जीवन,
खिला तो मखमल सा मैं भाया,
उजड़ा.... खद्दर सा छँटता हूँ।
20 /03/2018.     ~~~अजय।

Friday, 23 February 2018

वह है यहीं कहीं

वह है यहीं कहीं...

वह है भी यहीं, और है भी नहीं,
वो चला भी गया, और गया भी नहीं,
हम जो मिलने पहुँचे थे वहाँ पर उस दिन,
वो बस लेटा रहा...... वो उठा भी नहीं।

ऐसा पत्थर दिल हो जायेगा मेरा दोस्त,
न था विश्वास, और मानना भी कठिन,
कि जो हँसता था हर बात पर अब तलक,
रोने-गाने तक पर,वह हँसा ही नहीं।

सब की बातों में था, सब की सुबकियों में था,
भीगी आँखों में छुपती, उन अश्कियों में था,
जो खुल के न निकलीं, उन सिसकियों में था,
वह फिर सुबह अख़बार वाली सुर्खियों में था।

मेरी यादों ने फिर है पुकारा उसे,
जो चला तो गया, और गया भी नही,
एक दिल है यहाँ, जो न करता यक़ीं,
कि वो है भी यहीं, और है भी नहीं। 
14/02/2018.            ~~~अजय।

Wednesday, 21 February 2018

इस होली...

इस होली...

होली के हुड़दंग का, बजा रिया हूँ शंख,
सबको गले लगाइये, भेद न राजा, रंक।

जाति धर्म मत पूछिये, यह सबका त्यौहार,
मिल-जुल साथ दिखाइये, भारत का आचार।

ऐसे रंग बिखेरिये, मिट जायें सब पीर,
एक रंग भारत रंगे, केरल से कश्मीर।

मिल कर खायें हम सभी, गुझिया और नमकीन,
चाहे जितनी मिर्च चखें, पाकिस्तां और चीन।

है मिठास सबमें वही, गुझिया, सेंवई, खीर,
जानि लेहुं इस बात को, मुल्ला पंडित पीर।

खायेंगे सब अन्न ही, पशु आदम या अन्य,
जिस दिन हम यह मान लें, धरती होगी धन्य। 

कर्ज धरा का मानिये, भारत-भूमि महान,
स्वर्ग है इसको मानिये, मत कीजै अपमान।

कर्म न ऐसा हो कोई, लगे दाग स्वभिमान,
हों विचार यदि भिन्न भी, वाणी में हो मान।
21/02/2018.                      ~~~अजय।

Tuesday, 20 February 2018

मछलियाँ और सियासत

मछलियाँ और सियासत...

वे छोटी-छोटी मछलियों को घेरते रहे,
बड़ी वाली सारी, जाल काट, साथ ले गयीं।

वो समंदर की थीं, गंगा भाती भी क्यों,
जाने कितनों के मुख का, दाल-भात ले गयीं।

जो सर पर बिठाते थे अब तक उनको,
उन्हीं के सर से, साया, कनात ले गयीं।

जब बढ़ीं फुसफुसाहटें, थोड़ी हवाओं में,
शातिर थीं, पार सागर, वो सात कर गयीं।

सियासतें भी कैसी कुत्ती हैं, देखिये जनाब,
भौंक भौंक कर, इल्जामात-ए-बरसात कर गयीं।

हम चाहते हैं पूरी सबकी मुराद हो,
"औजार" कोई ऐसा, अब तो इज़ाद हो,
काँटा बने ऐसा, जो 'बड़ी' को भी नाथ लाय,
वे जिंदगी भर तड़पें कि, क्यों वे घात कर गयीं।
19 फरवरी 2018                     ~~~अजय।

Monday, 5 February 2018

दाँत का दर्द

दाँत का दर्द ...

यूँ तो हर दर्द एक ही सा है, 
मगर दाँत का दर्द बड़ा अजीब सा है।

रह रह के तेज़ टीस सी उभरती है,
जो दाढ़ से कनपटी तक गुजरती है।

पानी की बूँद तक कहर ढाने लगती है,
गर्म चाय की घूँट जैसे जहर माने लगती है।

रोगी तब सुख चैन सब खो देता है, 
बड़े से बड़ा बहादुर जबड़ा थाम के रो देता है।

भूल जाता आदमी ख़ुशियाँ भरी किलकारियाँ,
उठने लगती हैं सतत् जब दर्द की सिसकारियाँ।

है प्रार्थना कर जोड़ कर,  रखना भरम इस बात का,
हे ईश देना कुछ भी पर, मत दर्द देना दाँत का,
05फरवरी2018.                  ~~~ अजय।

Monday, 15 January 2018

और भई, क्या हो रहा है।

और भई ! क्या हो रहा है ?

और भई, क्या हो रहा है ????
यदि यह प्रश्न देश से है ...
या फिर बिगड़ते परिवेष से है,
तो... ये हृदय रो रहा है ... क्योंकि...
गंदगी हम ख़ुद फैला रहे हैं, और...
हर कोई मोदी को " धो " रहा है ;
क्या बताऊँ कि क्या हो रहा है।

मगर यदि ये प्रश्न मुझसे है ,
तो लो सुन लो कि क्या हो रहा है---

घुटने 'कट-कट' गुनगुनाने लगे हैं,
और दिल में 'धक-धक' के गाने लगे हैं,
तेज़ चलूँ तो साँस  फूलने लगती है,
गीत अगर गाऊँ तो धुन हिलने लगती है,
क्या बताऊँ, कि क्या-क्या हो रहा है।

बच्चों को खेलते देख कर मन तो मचलता है,
गेंद बग़ल से निकलती है, पर हाथ नहीं चलता है,
वक़्त कितनी तेज़ी से बदलता है,
यही देख देख के, दिल हैराँ हो रहा है......
क्या बताऊँ, कि क्या हो रहा है।

माथा झटकने ही से जो ज़ुल्फ़ बल खाती थी,
इन्हीं बालों में कभी कंघी अटक जाती थी,
रंग ऐसा कि ...काजल भी शर्मा जाये,
अब वो जैसे, कोई ब्लीचिंग पाउडर से धो रहा है,
क्या बताऊँ, कि क्या हो रहा है।

सपाट ललाट पर कोई शिकन तो न थी,
सधी त्वचा में ...कोई झूलन भी न थी,
फिसल आती थीं नज़रें भी चिकनाई पर,
अब तो वह चेहरा भी झुर्रियाँ संजो रहा है।
क्या बताऊँ, कि क्या हो रहा है।

लब हिलते ही झलकती थी दंत-पंक्ति,
पाषाण चबा जाने की रखती थी शक्ति,
रोटी-पराँठों की औक़ात ही क्या,
कठिन अब चबाना, चना हो रहा है,
क्या बताऊँ, कि क्या हो रहा है।

और भी अनेकों, तमाम ही सूचक हैं,
जो हमारी ढलती हुई, उम्र के द्योतक हैं,
वक़्त दौड़ता, और उम्र, सरिता सी बहती,
कभी उफ़नती, कभी शांत, कल-कल करती,
कहती है हमसे, कि जल्दी कर पगले,
ज़िम्मेदारियों से तू अब अपनी निपटले, 
देर मत कर तू, अब 'समय' हो रहा है,
क्या बताऊँ, कि क्या हो रहा है।

२२ सितम्बर १७        ~अजय 'अजेय'।

Tuesday, 28 November 2017

एक चेहरा ...

एक चेहरा ...

कर गया हमको यूँ दीवाना सा, 

एक चेहरा, जाना पहचाना सा...(२)

हम गुनगुनाते रहे, ताउम्र उसे,

बना के ख़ूबसूरत एक तराना सा...

मिला हमको वो नये शहर के जलसे में,

दबी हँसी, और अंदाज़ वो पुराना सा...

सुकूँ मिला, चलो हैं वो भी, यहीं ख़ुशी-राजी,

सज़ा के अपना, आशियाना सा...

बड़ी हसरत लिये बढ़े क़दम, मिलने उनसे,

चल दिये वो, बन के, अंजाना सा...।

एक चेहरा जाना पहचाना सा,

कर गया मुझको, यूं बेगाना सा,
27 Nov17.        ~~~ अजय

Friday, 10 November 2017

ऐ दिल्ली.....

ऐ दिल्ली......

क़ैद शीशियों में अब न ज़हर रहा,
शहर अपना अब न ये शहर रहा,
कैसे कहूं कि ...कभी आइये न,
दिन न दिन, दोपहर न दोपहर रहा।

सांसें धौंकनी सी चलने लगीं,

हथेलियाँ आँख यूँ मलने लगीं,
मुश्किल दिन रात का फ़र्क़ हुआ,
न साँझ साँझ, न सुकून-ए-सहर रहा।

घर से निकलना भी, आज दूभर है,

बाग़ में टहलना भी, हो गया दुष्कर,
हवा रूठी, बारिशों ने किनारा किया,
वक्त बीमार है मगर, नगर न ये ठहर रहा।
10 नवंबर 17.                ~~~अजय।

Monday, 8 May 2017

तुम मेरे न हुए...

तुम मेरे न हुए...

बातें बनी, शिकवे हुये मगर, कभी पूरे, फेरे न हुए...
कैसे कह दूँ मैं कि  तुम मेरे हो, जब कि तुम मेरे न हुए।

तुम मेघ बन के आये ...तो हवाओं में ख़ुशबू पली,

हवा ज़रा सी तेज़ हुई... तुम कहीं और उड़ चली,
हम तड़पते रहे, ...घायल पंछी बन कर,
और भटकते फिरे, ...कुछ वहशी बन कर,
मन के पंछी को हासिल, बसेरे न हुए....
कैसे कह दूँ मैं कि तुम मेरे हो, जब कि तुम मेरे न हुए।

फिर आँधियों का दौर सा चला,

बिजली से कमज़ोर दिल भी दहले,
उम्मीद को, तेरे भरोसे का दम जो था,
चाँद के इरादे, ...न मचले न बदले,
उम्मीदों की छत पे, रात के घनेरे न हुए....
कैसे कह दूँ मैं कि तुम मेरे हो, जब कि तुम मेरे न हुए।

अब थक गया है चाँद, रात भर के सफ़र से,
तकता रहा जो राह तेरी, खुली नज़र से, 
अब झपकने लगी है पलक, इसी असर से,
कब बंद हो जाये न जाने, ....नींद के डर से,
कितनी लंबी है रात, अब तक सवेरे न हुए ...
कैसे कह दूँ मैं कि  तुम मेरे हो, जब कि तुम मेरे न हुए।
08 मई 2017.                                ~~~ अजय।

Sunday, 12 March 2017

एक दिल है...

एक दिल है...

हो रहा यक़ीन कि, एक दिल है उनके पास,

मेरी ग़ज़ल के सफ़, गुनगुनाने लगे हैं वो।

निकली हैं जो दिल से, सदाओं में है असर,

अब सुन के मेरा नाम, लजाने लगे हैं वो।

पहले था कोई और, उनके घर का रास्ता,

मेरी गली से होकर अब,जाने लगे हैं वो।

पहले गुँथे होते थे, चोटियों में परांदे,

माथे पे दो लटें अब, झुलाने लगे हैं वो।

नज़रें उठा के गुफ्तगूं, करते थे जो कभी,

हमें देखते ही नज़रें, झुकाने लगे हैं वो।

ये उम्र का असर है, या कि प्रेम का सुरूर,

छत पे आने के बहाने, बनाने लगे हैं वो।

19/3/17                  ~अजय 'अजेय'।



हम आये हैं मिलने

हम आये हैं मिलने...  

हम आये हैं मिलने...ये गुलदस्ते सम्हालिये, 
आपके जो हाथ में हों, वो रिश्ते सम्हालिये।

अपनों के बीच, तोल-मोल होता नहीं है,
साथ मिल के सब हँसें, तो कोई रोता नहीं है,
वक़्त एक सा चले, ये तो हो नहीं सकता,
भारी भी कभी मीत के बस्ते सम्हालिये...
आपके जो हाथ में हों, वो रिश्ते सम्हालिये।

बढ़ते हैं रोज भाव, नून, तेल, दाल के,
हम भूल रहे "हाट", अब चलन हैं मॉल के,
आसमान में उगती नहीं हैं, सब्ज़ियाँ, फ़सलें,
ठेले के माल भी सस्ते सम्हालिये...
आपके जो हाथ में हों, वो रिश्ते सम्हालिये।

हम ये नहीं कहते कि ऊँचे ख्वाब न लखें,
मन में जो आयें भाव, उनको शान से रखें,
अंबर की ख़्वाहिशें भी हों, और पाँव ज़मीं पर,
लड्डू के साथ गुड़ के भी खस्ते सम्हालिये...
आपके जो हाथ में हों, वो रिश्ते सम्हालिये।

हम आये हैं मिलने...गुलदस्ते सम्हालिये,
आपके जो हाथ में हों, वो रिश्ते सम्हालिये।

12 मार्च 2017                      ~~~अजय।

Thursday, 23 February 2017

जिनकी ख़ातिर...

जिनकी ख़ातिर ...


जिनकी ख़ातिर कभी दर्द की परवाह नहीं की,
उन्होंने मेरी भावनाओं की कभी वाह नहीं की।

ख़ुद को बेवक़ूफ़ सा ही, पेश किया हरदम,
अपने को बड़ा कहने की कोई चाह नहीं की।

सबको समतल ही राहें, मिलती रहें सदा,
मैंने पगडंडियों से, कभी डाह नहीं की।

बात-बात पर रुसवाइयों का सामना किया,
घूँट ज़हर के पिये मगर, उफ़-आह नहीं की।

चलता रहा सदा, अपने रास्तों पर मैं,
टूटे फूटे ही सही, मखमली  राह नहीं की।

आज टूट गया सब्र मगर, उस तीखे तीर पे,
जो चला दिया उसने, मुझे आगाह नहीं की।

23/02/2017.                 ~~~अजय।

Saturday, 18 February 2017

जबसे उसने....

जबसे उसने...

दर्द उसका भी तो हमसाया है,
जब से उसने हमें, भुलाया है।

जुबां खुलकर करे, न करे ये बयां
क़िस्सा चश्मे-नम ने, सुनाया है।

बस में उनके भी न था कि जो, ख़ुद निभ जाता,
टूटे वादे ने ये, जताया है।

नैन कब तक मिला के रखते वो,
शबाबे-हुस्न ने जिनको, यूं झुकाया है।

उदासियों में भी नूरे-लबरेज़ रहा करता था,
चेहरा वो आज क्यों, मुरझाया है।

रंज हमको नहीं उनसे, न कोई शिकवा है,
यादों ने जिसे हर साँस में, समाया है।

09 फरवरी 17.                   ~~~अजय।

Monday, 13 February 2017

प्रेम दिवस की स्वच्छंदता

प्रेम दिवस की स्वच्छंदता...

क्यों मैं किसी तारीख़ का इंतज़ार करूँ,
क्यों न मैं हर रोज़ उनको प्यार करूँ,
क्या सिर्फ़ इसलिये, कि किसी के कार्ड बिकते हैं?
या फिर इसलिये, कि बिन ख़ुशबू के गुलाब बिकते हैं?
क्यों मैं किसी के ख़ज़ाने का भंडार भरूँ,
क्यों मैं प्रेम के नाम पर कोई व्यापार करूँ।

प्रेम इतना छोटा नहीं, जो किसी कार्ड में समा जाये,
प्रेम इतना हल्का भी नहीं, जो एक फूल से तौला जाये,
प्रेम तो एक एहसास है , मैं कैसे उसका भार करू,
प्रेम को दिल में बसाया है, तो क्यों मैं उसका प्रचार करूँ।

फ़रवरी चौदह हो या कि पंद्रह, इससे फ़र्क़ क्या,
आप मेरी बात को समझें, तो इसमें तर्क क्या,
क्यों मैं इसे एक दिन से बाँधने का विचार करूँ,
स्वच्छंद हूँ तो क्यों प्रेम की स्वच्छंदता पर अत्याचार करूँ,
क्यों मैं किसी तारीख़ का इंतज़ार करूँ,
क्यों न मैं हर रोज़ उनको प्यार करूँ....????????

10/14 फरवरी 2017.                                   ~~~ अजय।



Sunday, 12 February 2017

नवका साल मुबारक

नवका साल मुबारक
 
सबको सबका हाल मुबारक,
सबको नवका साल मुबारक,
वक़्त वक़्त की बात है प्यारे,
सबको रोटी दाल मुबारक।

ठनठन कोई गोपाल मुबारक,
किसी को मोटा माल मुबारक,
कोई थरथर काँप रहा है,
किसी को पशमिन शॉल मुबारक।

कैश न हो तो ऐश भी न हो,
ऐसा नहीं है हाल मुबारक,
सीख लो अन्तर्जाल मुबारक,
उँगली फेर कमाल मुबारक।

लो प्रदेश का हाल मुबारक,
किसी को मोटी खाल मुबारक,
कहीं अमर,कहीं पाल मुबारक,
किसी को राम गोपाल मुबारक।  

हमको अपना हाल मुबारक,
सबको सबका साल मुबारक, 
वक़्त वक़्त की बात है प्यारे...
सबको रोटी दाल मुबारक।

(अन्तर्जाल = Internet)
३१ दिसम्बर २०१६           ~~~अजय।

Saturday, 12 November 2016

मैं जिंदगी थी...

मैं जिंदगी थी...

वो तो वक्त था... गुजरता रहा,
मैं जिंदगी थी... चलती रही।

राह में लोग कई मिले,
कुछ ने ताने मारे, कुछ लगे गले,
कुछ को हम बुरे थे, कुछ को लगे भले,
कुछ दो-चार कदम, कुछ सालों साथ चले,
सुबह आती रही, शाम ढलती रही...
मैं जिंदगी थी... चलती रही।

कभी लड़खड़ाई मैं, तो कुछ बढ़े हाथ,
कुछ ने रंज किया, कुछ का मिला साथ,
कुछ ने वायदे किये, कुछ ने बनाई बात,
कुछ 'दिन' तक साथ रहे, छोड़ा जब आई 'रात',
एक शम्मा थी... जो जलती रही...
मैं जिंदगी थी... चलती रही।

थक कर बैठ जाती, वो मेरी फ़ित्रत न थी,
निढाल करती मुझे, ऐसी कोई ताकत न थी,
खार से खौफ़ खाना, भी मेरी सीरत न थी,
राह से लौट जाऊँ, ये मेरी हसरत न थी,
सफ़र जारी रहा, साँस पलती रही...
मैं जिंदगी थी... चलती रही।

09 नवम्बर 2016                   ~~~अजय।

Sunday, 6 November 2016

प्रदूषण दिल्ली का

प्रदूषण दिल्ली का ...

सफेद चादर ओढ़ कर
राजधानी सो रही है,
खतरों का रुख देखकर,
जनता सारी रो रही है।

प्रदूषण ऊँचे स्तर चढ़ कर,
इल्जाम औरों के सर मढ़कर,
दूषित राजनीति हो रही है,
दिल्ली खून के आँसू रो रही है।

साँस लेना दूभर है,
धुआँ पैमानों से ऊपर है,
आरोप-प्रत्यारोप की लड़ाई हो रही है,
और जनता इस दर्द को ढो रही है।

मगर मेरा सवाल है आपसे,
सरकार का क्या रिश्ता है इस पाप स?
क्या सरकार धुँये के बीज बो रही है?
या फिर हमसे ही यह चूक हो रही है?

पटाखे और बम किसने चलाये थे?
फसलों के डंठल क्या उसने जलाये थे?
जहर फैलाने में तो जनता की शुमार  हो रही है,
तो सरकार कैसे गुनहगार हो रही है

अब भी चेतो तो परिस्थिति सुधर जाये,
आने वाली पीढ़ियों का जीवन  सँवर जाये,
देखो तो, जवानी में ही जवानी खो रही है,
किसी को दिल, किसी को फेफड़े की व्याधि हो रही है।.
05 नवंबर 2016                    ~~~अजय।

चुनाव का मौसम

चुनाव का मौसम...

कितना अच्छा होता,जो हर माह चुनाव होते,
हर मतदाता का महत्व और अच्छे-अच्छे भाव होते।

किसी को भी न दुत्कारा जाता,
कमज़ोर,ग़रीब को भी सत्कारा जाता।

यदि भय होता अगले दिन कुर्सी जाने का,
तो हर कार्यकर्ता चाहता भी, कुछ कराने का।

सरकारी ख़जाने का पैसा, किसी की जेब में  न जाता, 
नेता जी का ध्यान भी टूटी सड़कों के फ़रेब पर जाता।

वादे करके भूल पाने का वक़्त न होता,
वोट पाने के बाद नेता घोड़े बेच कर न सोता,

एक और चाहत कि मात्र चुनाव जीतने से पेंशन न पकती,
तो किसी भी नेता जी की कभी, कार्यक्षमता न रुकती।

काश ! ऐसा होता कि हमारे भी असल के नाव होते,
न कि बस काग़ज़ी, ये हमारे ख़याली पुलाव होते।

न हम अपना मत किसी धर्म - जाति के लगाव खोते,
राजनैतिक अखाड़े में अपने भी कमाल के दाव होते।
 काश..... कितना अच्छा होता......

11 फ़रवरी 17.                                ~~~ अजय।

सौम्य दिवाली - सभ्य दिवाली

सौम्य दिवाली - सभ्य दिवाली...

सुनो मेरे मित्रों, सुनो मेरे आका,
सुनो मेरे भाई, सुनो मेरे काका,
सुनो बबलू , डबलू , सुनो रॉनी, राका,
सुनो जी फलाना, सुनो जी ढिमाका।

हो सुंदर दिवाली, हो उज्ज्वल दिवाली,
न हो कोई बम-वम, न कोई धमाका,
दीपों से रोशन हो, घर-घर खुशहाली,
न कोई प्रदूषण, न कोई पटाखा।

न गन्दी हों गलियाँ, न मुरझायें कलियाँ,
न शोला कोई हो, सबब हादसा का,
न भयभीत हों जन, न शंकित रहें मन
न बारूद कर दे, दुखी मन हवा का।

मनाएं दिवाली यह, सौम्य सभ्यता से,
पेश आयें न आप, किसी से असभ्यता से,

Monday, 24 October 2016

कुछ लिखा नहीं ?

कुछ लिखा नहीं ?...

शिकवा ये...कि मैंने,
बड़े दिनों से कुछ लिखा नहीं,
हाँ मैंने... कुछ लिखा नहीं,
क्योंकि लिखने लायक कुछ दिखा नहीं।

मैं ऐसा-वैसा भी नहीं ...
जो कुछ भी यूं ही लिखा करे,
मैं नहीं लिख पाता...
जब तक लिखने लायक न कुछ दिखा करे।

आज 'लिखने वालों' को देखिये न...
कुछ भी बे सिर-पैर की लिख रहे हैं,
और जो 'कुर्सी' को लालायित हैं...
वो 'बक-धुन' करने को आतुर दिख रहे हैं।

और विडम्बना भी देखिये...
कोई अपने साथियों के लिये ताबूत लख रहा है,
और ऐसे में अपना कहाने वाला भी,
'सिपाही' के पराक्रम का सबूत लख रहा है।

न जाने कैसी माटी से बने हैं ये लोग,
जिन्हें, कुर्सी के आगे कभी कुछ दिखा नहीं,
और मैं, इसी उधेड़-बुन में खो सा गया था...
इसलिये कुछ दिनों से कुछ लिखा नहीं।

23 अक्तूबर 16                ~~~अजय।

Tuesday, 5 July 2016

यादों के सहारे

यादों के सहारे...


आज पवन का झोंका आया,लिए बसंत बयार,
फेस-बुक पर देख उन्हें है फिर से उमड़ा प्यार।

वे हमको बिसरा बैठे हैं, कुछ सालों में यार,
हम कैसे भूलें यारों को ?... आदत से लाचार।

जब बैठें तनहाई में हम, डूबें गहन विचार,
आ जाती हैं मिलने हमसे, उनकी यादें चार।

खो जाता हूँ यादों के जंगल में, स्वयं बिसार,
वक़्त गुजर जाता है कठिन कुछ, है उनका आभार।

कह उठता हूँ यादों से, बिन बोले शब्द हजार,
जस आयीं तुम मेरे घर, जाओ उनके भी द्वार।

कहना उनसे मिलकर कि है, अब भी इंतेज़ार,
जो होता था तब, जब ना कर पाते थे दीदार।

05 जुलाई 2016                     ~~~अजय। 

Monday, 20 June 2016

योग बनाम योगा

'योग' ही रहने दो 'योगा' न बनाओ... 

अ को 'अ' ही रहने दो.... यूं  'आ' न बनाओ, 
योग को 'योग' रहने दो....'योगा' न बनाओ।

मैंने कब इंग्लैंड को 'इंग्लैंडा', ब्रिटेन को 'ब्रिटेना' कहा, 

मेरे हिन्द को 'हिन्द' ही रहने दो, 'इंडिया' न बनाओ।

अंग्रेजीयत का प्रदर्शन करने वालों से कोई जलन नहीं,

मगर मेरे 'महाराष्ट्र' को..... 'महाराष्ट्रा' न बनाओ। 

मुझे प्यार है असीम.... मेरी भाषा के शब्दों से,

आंध्र को 'आंध्र' ही रहने दो... 'आंध्रा' न बनाओ। 

कभी 'अकबर' को 'अकबरा', 'माइकल' को 'माइकला' न कहा,

अशोक को भी 'अशोक' रहने दो... 'अशोका'न बनाओ।

मैंने बाइबल को 'बाइबल', कुरान को 'कुरान' ही रहने दिया,

तुम भी रामायण को 'रामायण' कहो 'रामायना' न बनाओ।

हिन्द ने जीसस को 'जीसस', मोहम्मद को 'मोहम्मद' ही रखा,

तो राम को भी 'राम' ही रहने दो ... 'रामा' न बनाओ।

मैंने हर नाम का सम्मान, हर भाषा की इज्ज़त की है,

तो फिर नरेन्द्र को 'नरेन्द्र' रहने दो, 'नरेन्द्रा' न बनाओ। 

योग-दिवस की पूर्व संध्या पर, पुनः निवेदन है मेरा,

मेरे योग को 'योग' ही पुकारो, 'योगा' न बनाओ। 

20 जून 2016                                  ~अजय'अजेय'

Saturday, 11 June 2016

इश्क़ के सदके...

इश्क़ के सदके में...


इश्क़ के सदके में कुछ झुकना जरूरी है,  

दी किसी ने है सदा, रुकना जरूरी है।


छोड़ कर पीछे उन्हें कैसे बढ़ाएँ हम कदम,


कारवाँ की रीत है....... रुकना जरूरी है। 



रुक गए हैं हम तुम्हारी बात को सुनकर, 

अब हमारी बात भी सुनना जरूरी है।


वह दिखाता है वही जो वास्तव मे है,

उसको यारों "आईना" कहना जरूरी है॥


10/06/2016                     ~~~अजय।

Wednesday, 8 June 2016

मैं जब "हम" में बदल जायेगा

मैं जब हम में बदल जायेगा...

'मैं' जब 'हम' में बदल जायेगा,
सामने खड़ा पाषाण भी पिघल जायेगा।
दो बूंद प्रेम के अल्फ़ाज में रख,
शिकवों का पहाड़ भी गल जायेगा।
कितने दोस्त बिछड़े, 'मेरे' 'मैं' की दौड़ में,
'हम' से जुड़ कर देख, पीछे कारवाँ चल जाएगा। 
'मैं','मेरा', 'तू','तेरा'... 'हम' को तोड़ता रहा,
'अहं' नकार दीजिये, 'हम' स्वयं ही पल जाएगा।
'मैं' 'मैं' करते गुजार दी, जवानी अगर,
बुजुर्गियत के साथ... हाथ हाथ से फिसल जाएगा॥ 

07/06/16                            ~अजय 'अजेय'। 

Monday, 16 May 2016

तेवर

तेवर...

सूखने लगा है छद्म-प्रेम का सरोवर,
तल्खियाँ जुबान पर आने लगी हैं,
बदलने लगे हैं अब जनाब के तेवर,
बदलियाँ रिश्तों पे अब छाने लगी हैं।


16 मई 16 ~~~अजय.

Sunday, 24 April 2016

परिचय

                                   परिचय
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पहचाना मुझे ?...नहीं न ?
इसी बात का तो दुख है ! कोई मुझे पहचानता ही नहीं । खैर, ... चलो मैं स्वयं ही अपना परिचय  कराता हूँ।
शक्ल-सूरत से टेढ़ा-मेढ़ा दिखने वाला मैं, साधारण सा प्रश्न चिन्ह हूँ भाई। किन्तु ब्रह्माण्ड का कोई अंश ...नहीं जो मुझसे अछूता हो। मैं सर्व व्यापी हूँ । यह चिन्ह (?) तो मात्र मेरा द्योतक है जो मेरे वजूद को दर्शाने का कार्य करता है और यह सिर्फ उनके लिए है जो पढ़ना-लिखना जानते हैं । लेकिन मेरे अमूर्त एवं सत्य रूप से कोई अछूता रह  ही नहीं सकता। बल्कि यदि यह कहें की हर व्यक्ति के मस्तिष्क में मेरा वास हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
पर्याय  मेरे कई अन्य नाम भी हैं, जिनसे लोग मुझे जानते और महसूस करते हैं, भले ही वे पढ़ना-लिखना जानते हों अथवा नहीं। जैसे: जिज्ञासा, कौतूहल, उत्सुकता इत्यादि।
उपस्थिति  जब से एक बच्चा जन्म लेता है,तभी से उससे मेरा नाता जुड़ जाता है। "मैं कौन हूँ ?", "मेरे        आस-पास कौन लोग और कौन सी वस्तुएं हैं ?", "मेरे इर्द-गिर्द इतने लोग कौन हैं?", "मैं लेटा क्यों हूँ ? अन्य लोग चल फिर क्यों रहे हैं ?", "मुझे भूख लगे तो मैं क्या करूँ ?", "माँ को कैसे पास बुलाऊँ ?".... इत्यादि सहस्र प्रश्न हैं जो बच्चा हर पल सोचता रहता होगा। तो.....? तो ये, कि ये प्रश्न ही तो हैं जो उसके विकास का कारक बनते हैं..... यानि की "मैं"। मैं  ही हूँ जो उसके विकास में मूल भागीदार हूँ। मैं ही तो हूँ, जो उसमें विकास की चिंगारी प्रस्फुटित करता हूँ जिसके फलस्वरूप बच्चा प्रत्येक कार्य सीखना प्रारम्भ करता है।
अतः मैं घर में भी हूँ और बाहर भी हूँ तथा हर उस स्थान पर उपस्थित हूँ जहां प्रकृति है । विद्यालय में मैं, प्रत्येक कक्षा में मैं , प्रत्येक विद्यार्थी के विचारों में मैं, अध्यापक की जुबान पर मैं, प्रत्येक पुस्तक के हृदय में और हर पाठ के अंत में मैं हूँ। मैं हर परीक्षा की रीढ़ हूँ। मेरे बगैर कोई परीक्षा या साक्षात्कार सम्पन्न ही नहीं हो सकता।
मैं मंदिर, मस्जिद,गिरिजा एवं गुरुद्वारे में हूँ। हर भक्त की प्रार्थना के कारण में हूँ। मैं ईश्वर के प्रत्येक वरदान का प्रारम्भ हूँ... "कहो वत्स , क्या चाहते हो ?"।
मैं हर चिकित्सक/वैद्य  की जांच की शुरुआत हूँ ... "बोलो, क्या कष्ट/ तकलीफ़ है ?", "कैसी तबीयत है?", "यह परेशानी कबसे है?", "क्या नित्य-क्रिया ठीक से संचालित हो रही है?" अथवा "पहले कभी ऐसी समस्या हुई थी क्या?"। चिकित्सा पद्धति का अंत भी मैं ही हूँ..... "सब कुछ तो ठीक था, किन्तु दवा ने असर क्यों नहीं किया?", पोस्ट मोर्टम- "मृत्यु का कारण क्या है / क्या था ?"।
मैं हर अभिभावक की चिंता में हूँ। "बच्चे कैसे पढ़ेंगे - क्या बनेंगे ?", "उनका शादी-व्याह कैसे होगा? बहू कैसी होगी? दामाद कैसा मिलेगा?", "क्या हमारे बच्चे बुढ़ापे में हमारी कद्र करेंगे ?"।
मैं हर प्रेमी-युगल की उत्सुकता में हूँ। "क्या वह भी मुझे उतना ही चाहता/चाहती है जितना कि मैं उसे ?", "क्या वो सिर्फ मेरा है?", "क्या वो मुझसे शादी करेगा/करेगी?", "उसके परिवार के लोग कैसे होंगे?"।
ज्योतिष-शास्त्र में विश्वास रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति के कौतूहल में मैं हूँ। कई बार तो मैं ऐसे रूप धर कर उपस्थित होता हूँ कि श्रोता भी विचलित होकर सोचने को बाध्य हो है कि , "क्या उसका विषय-ज्ञान अधूरा है ?" यही वह स्थिति है जब किसी नवीन खोज अथवा अन्वेषण की नीव पड़ती है। अतः यदि मैं यह कहूँ कि हर विकास-प्रक्रिया के आधार मे मैं ही हूँ तो कोई अतिशयोक्ति या बदबोलापन नहीं होगा।
विश्व के प्रत्येक अन्वेषण/खोज का मूल आधार हूँ मैं। अध्यात्म के गुह्यतम रहस्यों/मंत्रों के खोज की आधारशिला हूँ मैं। मैं ऋषियों व सन्यासियों के भटकाव का कारण हूँ। मैं ही वैज्ञानिकों के फलसफ़ों की उद्गम-स्थली  हूँ। कण-कण मे मेरा निवास है। निर्जीव-सजीव कोई भी मुझसे अछूता नहीं है।
क्या आप अब भी कहेंगे कि मुझे पहचाना नहीं ???????...... हा हा हा ....एक और प्रश्न? जी हाँ - मैं प्रश्न हूँ।
23 अप्रैल 2016                                                                                                                   ~~~ अजय। 

Friday, 15 April 2016

चिराग

चिराग......

जलना तो नियति ही थी मेरी ...
घर का चिराग जो बना दिया सबने।


मैं उन्हें निराश भी करता कैसे ...
स्वधा का जरिया बना दिया सबने।


जिस पर यकीं किया आँख मूँद कर के...
बलि का बकरा बना दिया उसने।

जमानत बन कर छुड़ाते रहे जिनको...
क़ैद हमको ही दिला दिया उसने।

सूई की नोक से बचाने को सोचा जिनको...
पीठ में खंजर चुभा दिया उसने।

पालक भी नाम नहीं होती जज़्बात में अब...
आँख का आँसू सुखा दिया उसने।

छाता मान कर माथे पे रखा था जिसको...
ओला बन कर दगा दिया उसने।

24 अप्रैल 2016       ~~~अजय । 

Sunday, 10 January 2016

रोज देखता हूँ...

रोज देखता हूँ...

हर रोज देखता हूँ...
मैं मुँदी हुई आँखों से,
फ़लक पर तैरते ख़यालों के,
अदृश्य लहराते पांखों से,
बढ़ते हुये एक निवेश को,
सीढ़ियाँ चढ़ते पुत्र 'अनिमेष' को...
बढ़ती हुयी एक निधि को,
समृद्ध होती हमारी 'समृद्धि' को...
मैं रोज देखता हूँ...... 

हर रोज देखता हूँ...
खामोश विचारों की उड़ानों में,
हृदय की गुह्यतम खदानों में,
सोच की पर्वतीय ऊंचाई में,
समंदर की गहरी तन्हाई में,
परछाईं सी लिपटी एक विभा को,
मेरे हमदम, हमसफर 'निभा' को...
मैं रोज देखता हूँ...... 

हर रोज देखता हूँ...
बंद नयनों के प्रकाश में,
अनंत असीम, विस्तृत आकाश में,
अशक्त होते हाथ के आशीषों में, 
झुर्रियों को स्पष्ट दिखाते, शीशों में,
कुदरत की उत्कृष्टतम नायाबी को... 
मेरी माँ, देवी 'गुलाबी'को... 
मैं रोज देखता हूँ.........

हर रोज देखता हूँ...
दिन-ब-दिन धुंधलाती तस्वीर में,
जलती-बुझती यादों की तक्रीर में,
मंदिर के शंखनाद में, गिरिजा की घंटी में,
गुरुद्वारे की सेवा, मस्जिद की तक़्बीर में,
भागती-दौड़ती जिन्दगी को गिरते-सम्हलते,
जुटाने और सजाने की तदबीर में,
थक कर गिरते, फिर उठ कर चलते एक संवेदी को...
मेरे प्रेरणा-स्रोत पिता, स्वर्गीय 'भारती छेदी' को...
मैं रोज देखता हूँ......
02 जनवरी 16                ~~~ अजय॥ 


Thursday, 3 December 2015

विरह के पल...

विरह के पल... 

विरहन की है कामना बिलखती सी,
विरह की है वेदना झलकती सी,
तनहाई की चुभन भरी खामोशियाँ,
कोरे पन्नों पर कविताएं छलकती सी।

03 दिसंबर 2015 ~~~अजय।

Tuesday, 10 November 2015

जलो ऐसे कि.....

जलो ऐसे कि...

पियो इस तरह, कि तिश्नगी निकले,

जलो ऐसे कि, रोशनी निकले। 

रोज हँसते रहे हो, मेरी नाकामियों पे,
आज दिल से वो, दिल्लगी निकले। 

यूं हिकारत से, न देखा कीजै,

कभी तो नज़र से वो, पारगीं निकले।

हम भी तोहफे  हैं, इसी कुदरत के,

हमारे वास्ते भी, बंदगी निकले।

हमें न तिल-तिल कर, जलाए कोई,

जाँ निकले तो एक बारगी निकले॥ 

10 नवंबर 15                      ~~~अजय। 

(तिश्नगी=प्यास, हिकारत= हेय दृष्टि/नफ़रत, 
पारगीं=पूरानापन, बंदगी=प्रार्थना/पूजा )

Sunday, 8 November 2015

ससुराल...

ससुराल...
एक दिन बैठे-बैठे  ये कमाल हो गया,
वो अजनबी सा गाँव था, ससुराल हो गया।

मैं गुजरती थी बे-झिझक, बे-रोक गाँव से,
कोई बांध गया घुंघुरू दोनों ही पाँव से,
कहीं बज ना उठें... रोज का सवाल हो गया...
वो अजनबी सा गाँव था, ससुराल हो गया। 

दो लटकती थीं चोटियाँ, काँधों के बगल से,
मैं होने लगी बे-दखल, अपने ही दखल से,
लट सिमट के जूड़ा बना है, बाल हो गया...
वो अजनबी सा गाँव था, ससुराल हो गया।

उस दिन तो मेरे चलते, कदम ही रुक गए,
नैनों के पलक लाज से, स्वतः ही झुक गए,
स्वर्णिम मेरा कपोल , लाल-लाल हो गया...
वो अजनबी सा गाँव था, ससुराल हो गया।

07 नवंबर 15                       ~~~अजय। 

Sunday, 25 October 2015

मशहूर हो गया...

मशहूर हो गया...

न खुल के दिल ही तोड़ा, ना रूबरू हुये ,
ज़ालिम ये इल्म तेरा मशहूर हो गया।...ज़ालिम ये ...

हैरत है आज भी कि क्यों जुबां नहीं खुली,
बात मन में लिए मन की,  वो दूर हो गया।...ज़ालिम ये ...

उसने भुला दिया मगर ये कैसे मैं करूँ,
इस दिल के आगे मैं तो, मजबूर हो गया।...ज़ालिम ये ...

दिन रात सोचते रहे, कि क्या खता हुयी,
उसे चाहने में क्या बड़ा क़ुसूर हो गया ।... ज़ालिम ये ...

तुम झाँकते रहे दरीचों की आड़ से,
और कारवां मेरा नज़र से दूर हो गया।...ज़ालिम ये ...

24 अक्तूबर 2015          ~~~अजय॥

Saturday, 10 October 2015

माँ कहाँ थी... तुम ही तो थे ।

माँ कहाँ थी... तुम ही तो थे...
(Sainwinians77 को समर्पित)

माह जुलाई, उन्नीस-सत्तर, 
अपनी चादर अपना बिस्तर,
बाबूजी जब छोड़ गये थे, 
तुम से नाता जोड़ गये थे,
कौन था साथी, कौन था रहबर ?....
माँ कहाँ थी......तुम ही तो थे....

बटन टाँकना ना था आया ,
वह भी तुमने ही सिखलाया,
गाँव छोड़ कर आए थे हम,
भीतर से गबराए थे हम,
उंगली, मेरी किसने थामी ?....
माँ कहाँ थी......तुम ही तो थे....

देखी थी कब कंठ-लंगोटी...?
तुम संग खानी सीखी रोटी,
चम्मच-कांटे थाम न पाते,
तुम जो हमको नहीं सिखाते,
फ़ीते जूतों के  बँधवाने ?....
माँ कहाँ थी........तुम ही तो थे .... 

रात ठिठुर कर सोया था जब, 
तनहाई में रोया था जब,
बिस्तर गीला कर बैठा था,
मैडम ने जब कान ऐंठा था,
ढाढस देने, साथ निभाने ?....
माँ कहाँ थी....... तुम ही तो थे....

दीवाली की रात वो काली,
सुलगी ज़ेब पटाखे वाली,
याद मुझे, वह मुड़ी कलाई ,
डॉक्टर से प्लास्टर चढ़वाई,
खुली शर्ट के बटन लगाने?....
माँ कहाँ थी....... तुम ही तो थे.... 

वो बचपन  था संजीदा सा,
अब पचपन है कुछ सीधा सा, 
हर कदम रोकता है अब तो,
तब बाँध नहीं कोई होता था,
कभी याराना कभी लड़े-भिड़े,
हम  एक-दूजे संग हुए बड़े, 
आया जब वक़्त बिछड़ने का.…
तो माँ कहाँ थी....... तुम ही तो थे.…  
बस तुम ही तो थे… हाँ भई तुम ही तो थे.… 

11 अक्तूबर 15             ...अजय॥ 

Tuesday, 18 August 2015

राजा जी तुम राजा हो तो...

राजा जी तुम राजा हो तो...

राजा जी तुम राजा हो तो राजाओं सी बात करो,
"प्राण जाये पर वचन जाये" ऐसे तुम हालात करो।

नींद उड़ा अपनी आँखों की मैंने तुम्हें सुलाया था,

याद करो वह दिन जब तुमने मुझको गले लगाया था। 

जब भी तेरी आहों ने मुझको आवाज लगाया है,

मेरे घर का मौन सिपाही थाली तज कर आया है।

मैं तेरे उन्नत मस्तक का कभी गुरूर हुआ करता था,

तुझ पर सदा फ़ना होने का मुझे सुरूर हुआ करता था।

आज "मुनीमों" ने तेरे मेरी क्या हालत कर डाली है,

कुर्सी जो आगे सजती थी मीलों पीछे कर डाली है।

आज झूलती चमड़ी पर कुछ "प्यादों" ने लाठी मारी है,

आहत हुआ हृदय "पगड़ी" का जो हमको हर दम प्यारी है।

हमें सुला दें ऐसा उनकी लाठी में दम कभी नहीं है,

गिरती हुयी साख पर मेरी, नज़र तुम्हारी अभी नही है।

कहो बुला कर "प्यादों" से कि खामोशी कमजोर नहीं है,

जिस दिन खुले पाँव बेड़ी से उस दिन कोई ठौर नहीं है।

मेरा "मुखिया" चुप बैठा पर मेरा दिल गम-भरा हुआ है,

कैसा "जन्तर-मन्तर" है, जो लाल खून से हरा हुआ है?

15/18 अगस्त 15                                     ~~~ अजय। 

Saturday, 15 August 2015

कलाम मेरी जान...

"कलाम" मेरी जान...

क्या वो हिन्दू नहीं था,
क्या वो मुसलमाँ नहीं था ?
क्या वो बुद्ध का अनुयायी, 
या कि क्रिस्तान नहीं था ?
क्या वो सिखों कि पगड़ी,
और बच्चों की "अज़ान" नहीं था ?
अरे, कभी तो अपने ज़मीर से पूछ कर देखो,
क्या कलाम मेरी जान, "हिंदुस्तान" नहीं था ?

06अगस्त15                          ~~~अजय।

मुझे याद हैं वो दिन....

जब अजनबी हम-तुम... 

मुझे याद हैं वो दिन,  जब अजनबी थे तुम,
मुझे याद हैं वो दिन, जब अजनबी थे हम,
तुमको भी याद होगा, जब अजनबी हम-तुम........ 
शिकवे-गिले पिघल गए, जब हमसे मिल गए तुम...
मुझे याद हैं वो दिन......

सूनी सी एक गली और वो झिझकते कदम,
सहमी हुई वो धड़कनें, आँखों में वो शरम,
ना जाने आगे क्या हो, दिल का हसीं भरम ,
सब दूर हो गए यूँ, जब तुममें घुल गए हम ...
मुझे याद हैं वो दिन.......

गुल प्यार के खिलेंगे, या फिर मिलेंगे ज़ख़म,
न थी मुझको ये खबर, न ही कुछ जानते थे तुम,
मंजिल मिलेगी या, मिलेंगे जिंदगी के गम,
चिलमन हटी तो मिट गए, दुनिया के सब वहम,
मुझे याद हैं वो दिन...... जब अजनबी थे हम....

15 अगस्त 2015                   ~~~ अजय। 

Wednesday, 5 August 2015

यूं न संगदिली से मिलिये...

यूं न संगदिली से मिलिये... 

रोज मिलते रहे हैं ....... ख़यालात में,
अब न संगदिली से मिलिये, मुलाकात में।

चाँद को देख कर चाँदनी खिल गयी,
है सितारों को भी रोशनी मिल गयी,
मन भिंगा लाइये आज, बरसात में,
अब न संगदिली से मिलिये, मुलाकात में।

है खताओं को भी कुछ, सजा मिल चुकी,
है पतंगों की पांखें, शमा तल चुकी,
कट गयी जिंदगी मेरी गफ़्लात में,
अब न संगदिली से मिलिये, मुलाकात में।

आप को देख कर, कुछ उम्मीदें जगीं,
दिल धड़कने लगा, साँसें चलने लगीं,
हम यूं कब तक जियें कतरे-लमहात में,
अब न संगदिली से मिलिये, मुलाकात में।

रोज मिलते रहे हैं ....... ख़यालात में,
अब न तंगदिली से मिलिये, मुलाकात में.... 
यूं न संगदिली से मिलिये, मुलाकात में,
ज़रा रंगदिली से मिलिये, मुलाक़ात में। 

04 अगस्त 2015                     ~~~अजय।