और भई ! क्या हो रहा है ?
और भई, क्या हो रहा है ????
यदि यह प्रश्न देश से है ...
या फिर बिगड़ते परिवेष से है,
तो... ये हृदय रो रहा है ... क्योंकि...
गंदगी हम ख़ुद फैला रहे हैं, और...
हर कोई मोदी को " धो " रहा है ;
क्या बताऊँ कि क्या हो रहा है।
मगर यदि ये प्रश्न मुझसे है ,
तो लो सुन लो कि क्या हो रहा है---
घुटने 'कट-कट' गुनगुनाने लगे हैं,
और दिल में 'धक-धक' के गाने लगे हैं,
तेज़ चलूँ तो साँस फूलने लगती है,
गीत अगर गाऊँ तो धुन हिलने लगती है,
क्या बताऊँ, कि क्या-क्या हो रहा है।
बच्चों को खेलते देख कर मन तो मचलता है,
गेंद बग़ल से निकलती है, पर हाथ नहीं चलता है,
वक़्त कितनी तेज़ी से बदलता है,
यही देख देख के, दिल हैराँ हो रहा है......
क्या बताऊँ, कि क्या हो रहा है।
माथा झटकने ही से जो ज़ुल्फ़ बल खाती थी,
इन्हीं बालों में कभी कंघी अटक जाती थी,
रंग ऐसा कि ...काजल भी शर्मा जाये,
अब वो जैसे, कोई ब्लीचिंग पाउडर से धो रहा है,
क्या बताऊँ, कि क्या हो रहा है।
सपाट ललाट पर कोई शिकन तो न थी,
सधी त्वचा में ...कोई झूलन भी न थी,
फिसल आती थीं नज़रें भी चिकनाई पर,
अब तो वह चेहरा भी झुर्रियाँ संजो रहा है।
क्या बताऊँ, कि क्या हो रहा है।
लब हिलते ही झलकती थी दंत-पंक्ति,
पाषाण चबा जाने की रखती थी शक्ति,
रोटी-पराँठों की औक़ात ही क्या,
कठिन अब चबाना, चना हो रहा है,
क्या बताऊँ, कि क्या हो रहा है।
और भी अनेकों, तमाम ही सूचक हैं,
जो हमारी ढलती हुई, उम्र के द्योतक हैं,
वक़्त दौड़ता, और उम्र, सरिता सी बहती,
कभी उफ़नती, कभी शांत, कल-कल करती,
कहती है हमसे, कि जल्दी कर पगले,
ज़िम्मेदारियों से तू अब अपनी निपटले,
देर मत कर तू, अब 'समय' हो रहा है,
क्या बताऊँ, कि क्या हो रहा है।
२२ सितम्बर १७ ~अजय 'अजेय'।
और भई, क्या हो रहा है ????
यदि यह प्रश्न देश से है ...
या फिर बिगड़ते परिवेष से है,
तो... ये हृदय रो रहा है ... क्योंकि...
गंदगी हम ख़ुद फैला रहे हैं, और...
हर कोई मोदी को " धो " रहा है ;
क्या बताऊँ कि क्या हो रहा है।
मगर यदि ये प्रश्न मुझसे है ,
तो लो सुन लो कि क्या हो रहा है---
घुटने 'कट-कट' गुनगुनाने लगे हैं,
और दिल में 'धक-धक' के गाने लगे हैं,
तेज़ चलूँ तो साँस फूलने लगती है,
गीत अगर गाऊँ तो धुन हिलने लगती है,
क्या बताऊँ, कि क्या-क्या हो रहा है।
बच्चों को खेलते देख कर मन तो मचलता है,
गेंद बग़ल से निकलती है, पर हाथ नहीं चलता है,
वक़्त कितनी तेज़ी से बदलता है,
यही देख देख के, दिल हैराँ हो रहा है......
क्या बताऊँ, कि क्या हो रहा है।
माथा झटकने ही से जो ज़ुल्फ़ बल खाती थी,
इन्हीं बालों में कभी कंघी अटक जाती थी,
रंग ऐसा कि ...काजल भी शर्मा जाये,
अब वो जैसे, कोई ब्लीचिंग पाउडर से धो रहा है,
क्या बताऊँ, कि क्या हो रहा है।
सपाट ललाट पर कोई शिकन तो न थी,
सधी त्वचा में ...कोई झूलन भी न थी,
फिसल आती थीं नज़रें भी चिकनाई पर,
अब तो वह चेहरा भी झुर्रियाँ संजो रहा है।
क्या बताऊँ, कि क्या हो रहा है।
लब हिलते ही झलकती थी दंत-पंक्ति,
पाषाण चबा जाने की रखती थी शक्ति,
रोटी-पराँठों की औक़ात ही क्या,
कठिन अब चबाना, चना हो रहा है,
क्या बताऊँ, कि क्या हो रहा है।
और भी अनेकों, तमाम ही सूचक हैं,
जो हमारी ढलती हुई, उम्र के द्योतक हैं,
वक़्त दौड़ता, और उम्र, सरिता सी बहती,
कभी उफ़नती, कभी शांत, कल-कल करती,
कहती है हमसे, कि जल्दी कर पगले,
ज़िम्मेदारियों से तू अब अपनी निपटले,
देर मत कर तू, अब 'समय' हो रहा है,
क्या बताऊँ, कि क्या हो रहा है।
२२ सितम्बर १७ ~अजय 'अजेय'।
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