Friday 10 November 2017

ऐ दिल्ली.....

ऐ दिल्ली......

क़ैद शीशियों में अब न ज़हर रहा,
शहर अपना अब न ये शहर रहा,
कैसे कहूं कि ...कभी आइये न,
दिन न दिन, दोपहर न दोपहर रहा।

सांसें धौंकनी सी चलने लगीं,

हथेलियाँ आँख यूँ मलने लगीं,
मुश्किल दिन रात का फ़र्क़ हुआ,
न साँझ साँझ, न सुकून-ए-सहर रहा।

घर से निकलना भी, आज दूभर है,

बाग़ में टहलना भी, हो गया दुष्कर,
हवा रूठी, बारिशों ने किनारा किया,
वक्त बीमार है मगर, नगर न ये ठहर रहा।
10 नवंबर 17.                ~~~अजय।

1 comment:

  1. बचाना है शहर जो, तो बदलना हमको भी होगा।
    साफ़ मन को भी, और शहर को भी करना होगा।
    छोड़नी होंगी कुछ सुख और सुविधाएं भी अपनी,
    हर एक शख़्श को भी फ़िक्रमंद तो करना होगा।

    जय हिंद श्रीमान जी☺️👍💐वैसे हम लोग सिर्फ़ फ़िक्र ही करते रह जाते हैं और ख़ुद गंदगी फैलाने से बाज़ नहीं आते☺️दूसरों को समझाना भी लड़ाई मोल लेने जैसा है☺️जब तक हम सिगरेट पीकर बट को इधर उधर फेंकने से बाज़ नही आएंगे, तब तक दूसरों को समझाने का औचित्य भी नही है☺️दरअसल हम लोगों की मानसिकता ही ऐसी है कि हम जस के तस रहें और सफ़ाई कोई और कर दे☺️☺️अधिकतर की यही सोच है, इसलिए एक ही उपाय कारगर हो सकता है☺️वो है on spot fine या full बेज़्ज़ती☺️☺️☺️ थोड़े दिन लोग सरकार को जरूर गालियां देंगे लेकिन बाद में सुधारने के chance भी हैं☺️

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