जब जुबान बन चले कटारी।
तब तब होवे अनहित भारी।।
आपस में ही झगरि परैं सब।
काका चाचा भइया नारी।।
भूलि परत सब रिश्ते नाते।
अपनी बोली में चिल्लाते।।
जब आती कुर्सी की बारी।
एक साथ सब हाथ उठाते।।
मैं मैं मैं मैं सारे बोलें।
इक दूजे के चिट्ठे खोलें।।
गठबंधन की गाँठें खुलकर।
नैया अपनी स्वयं डुबो लें।।
कैसे करै भरोसा जनता।
जितने मुख उतने ही हंता।।
*मिजाजपुर्सी नभ ऊपर है।*
*नजर सभी की कुर्सी पर है।।*
जुड़ती नहीं गाँठ बंधन की।
बाधित दृष्टि हुई अंधन की।।
भइया चले डगर लंदन की।
दीदी घिसे गोट चंदन की।।
21/4/23 ~अजय 'अजेय'।
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