Monday, 31 October 2011

धर्म युद्ध

" धर्म-युद्ध "
(हैदराबाद में तसलीमा नसरीन की पुस्तक 
विमोचन समारोह -२००७ पर हमले से प्रेरित)

कुछ फूल फर्श पर पड़े हुए,
कुछ शीश शर्म से गड़े हुए 
कुर्सियां गिरीं आड़ी - टेढ़ी
हैं लोग धर्म पर भिड़े हुए

जो बात कही... वह उनकी थी 
क्यों मेरे कान हैं खड़े हुए 
क्यों भड़क उठा हूँ मैं उन पर
अपने विचार ले अड़े हुए

वे भी तो हैं मेरे घर के
उन ने भी दुनिया देखी है 
उन पर क्यों खुद को थोपूं मैं 
जिसने सब ग्रन्थ हैं पढ़े हुए 

सलमान हों या तसलीमा हों 
सबकी अपनी ही सीमा हों
कोई न किसी को बहकाए
कोई न किसी को धमकाए 
मर्यादा में हर धर्म चलें
मर्यादा में हर कर्म पलें
हर धर्म से लो उनकी खूबी
सब धर्म रत्न से जड़े हुए 

९ अगस्त०७                  ...अजय 

Saturday, 8 October 2011

Naasamajh

ना-समझ... 

दर्द को तो सभी ने सहा है मगर ,
"दर्द" से कोई परिचय कराता नहीं

प्रेम में सबने आहें भरीं हैं मगर, 
"प्रेम" क्या है, ये कोई बताता नहीं

हंसते देखा है सबको हजारों दफा ,
पर "ख़ुशी" क्या है ,कोई सुझाता नहीं

हसरतें हैं उजालों की सबको यहाँ, 
"रोशनी" कोई मुझको दिखाता नहीं

पोथियाँ लिख गए हैं करोड़ों गुरु,
"सत्य" क्या क्या है, समझ फिर भी आता नहीं

नासमझों की बस्ती में हूँ आ गया, 
"ना-समझ" कोई कहता, तो भाता नहीं

एक ही बात खुद से हूँ समझा यहाँ,
कोई दूजा किसी का, विधाता नहीं

मेरे "अज्ञान" का दोषी खुद ही तो हूँ,
जो कदम अपना खुद मैं बढाता नहीं.

                                                                  ...अजय 

Tuesday, 4 October 2011

Sarhad Ke Paar

सरहद के  पार भी...

सरहद  के उस पार भी... 
एक ऐसा गाँव है. 
ऐसा ही पनघट है,
और बड़, पीपल की छाँव है.

लोरियां वहां भी, गाती हैं माताएं
सर्दी की शामों को जलती अलाव है .
दर्द वैसा ही है, अपनों से बिछुड़ने का वहां, 
जैसे, यहाँ सीनों में रिसता यह घाव है .

वैधव्य की कसक उतनी ही, कसैली है वहां भी,
जितनी चुभन भरी, "सफ़ेद साड़ी" की छाँव है.
रक्त  का रंग  उतना  ही, सुर्ख  है वहां भी,
उतना ही पावन , महावर लगा पाँव है.

बेटों की मौत पर, वहां भी बहते हैं अश्क ही,
जैसे यहाँ शहीदों के लिए, होता यह स्राव है.
माँ की ममता तो, वहां भी शीतल ही है,
नदियों के घाटों पर, वही लकड़ी की नाव है.

जब सब एक सा है, तो कौन ऐसा कर गया...?
भाइयों के बीच का वो भाई-चारा मर गया.
साथ बैठ कर खाता, था उसी थाली में जो,
प्रेम की थाली को, अपने हाथों बेध कर गया 

०४ अक्तूबर ११                                                                                   ...अजय 

Sunday, 2 October 2011

Ghazal - Chaand ko aainaa....

चाँद को आइना ...


चाँद को आइना, दिखा रहा है कोई 
एक रूठे हुए साथी को , मना रहा है कोई .
चाँद को आइना दिखा रहा है कोई

जैसे मुरझा रहा हो, गुल खिल के 
वैसा चेहरा, दिखा रहा है कोई .
चाँद को आइना, दिखा रहा है कोई

रूठने से क्या कभी भी, कुछ हुआ हासिल 
मुझ पे बस जुल्म, ढा रहा है कोई
चाँद को आइना, दिखा रहा है कोई

वे जो रूठे तो, बदलियाँ छायीं
लब पे उनके, हंसी को, बुला रहा है कोई
चाँद को आइना, दिखा रहा है कोई

खताएं तेरी हों , मेरी हों, इससे फर्क ही क्या
ना-खफा हो, अब सर तो, झुका रहा है कोई
चाँद को आइना, दिखा रहा है कोई

मान भी जाओ, मुस्कुरा दो, अब तो 
ये तो सोचो, कि अपना ही, मना रहा है कोई
चाँद को आइना, दिखा रहा है कोई

०१ अक्तूबर ११                                            ...अजय 

Thursday, 22 September 2011

"जीवन-पथ"

"जीवन पथ"

तुमने है एक राह चुनी 
फिर पीछे कदम हटाना क्यों ?
राह  में कुछ काँटे भी  होंगे 
काँटों से घबराना क्यों ? 

कोई ऐसा पथिक नहीं है 
जिसको हर पथ सुगम मिला हो
कोई ऐसा जीव न देखा 
जिसको कोई गम न मिला हो

बाधाएं पग-पग पर होंगी 
होना मत मायूस कभी 
मायूसी को ठोकर दोगे 
जीतोगे तुम जंग तभी 

मत स्वीकारो हार अभी से 
जीवन पथ काफी लम्बा है 
खुद को यूँ मजबूत करो जो 
लगे गड़ा लौह - खंभा है.

२१सितम्बर ११                           ...अजय 

Wednesday, 14 September 2011

Matribhasha-Hindi (मातृभाषा "हिंदी")

मातृभाषा  "हिंदी"

दुल्हन के माथे पर शोभित, 
जैसे होती कोई बिंदी, 
भारत के माथे पर भी है,
झिलमिल करती, बिंदी हिंदी। 

"देवनागरी" से सज्जित, 
यह देवनगर की बेटी है, 
अलंकार से भरी हुई यह, 
रस, छंदों की पेटी है। 

"दिनकर", "हरिवंश", "निराला" की, 
"जयशंकर", "धनपत लाला" की,
"मैथिली", "महादेवी", "बेढब", 
लाखों की यही चहेती है। 

"सक्सेना के. पी." भी जानें,
"चौबे प्रदीप" भी हैं माने,
यह "शैल चतुर्वेदी" की बान,
हिंदी "अशोक"(चक्रधर) जी की है जान। 


हिंदी में पुष्प खिले "अनुपम",
जैसे कि  हैं "अमृत प्रीतम",
"बैरागी" ने इसको सींचा,
"शैलेश" ने है ऊपर खींचा,
यह भाषा "अटल बिहारी" की, 
उपवन सुन्दर, यह बागीचा।
"हुल्लड़" ने धूम मचाई है, 
नाटक रचते "परसाई" हैं,
हैं "रेनू फणीश्वर" कथाकार, 
"श्री लाल शुक्ल" सा व्यंगकार,
इसमें रमते "मासूम रजा", 
जिसने है "आधा गाँव" रचा। 

हमने अंग्रेजी अपनाई,
जो पार-समंदर से आई,  
उर्दू को भी तो  अपनाया, 
जो दूर मदरसों से पाया,
फिर हिंदी को क्यों छोड़ चलें,
जो माता भी, और है 'आया'।  

दैवी वरदान, जुबान है ये, 
मेहमान नहीं, घर-बारी है, 
इसका न कोई अपमान करे, 
समझो यह मातु हमारी है। 

आओ अब यह संकल्प करें,
अपना प्रयास यह अल्प करें, 
अपनी हिंदी में एक पत्र, 
लिखें और काया-कल्प करें। 

२६ जनवरी २००४                              ...अजय। 

Monday, 29 August 2011

LEKH - ATANKVAAD : VYADHI AUR UPCHAAR

आतंकवाद  : व्याधि  और  उपचार

          कलम ने विराम लिया और विचारों की बेल को जैसे सहारा मिल गया.श्रृंखला की भांति ,एक के बाद एक जैसे कड़ियाँ जुड़ती चली जाती हैं,विचारों  ने  राह  पकड़  ली. विचाराधीन विषय था- आतंकवाद . एक लघु-अंतराल के बाद मैंने कलम को फिर जीवंत कर दिया; डर था कहीं कुछ छूट न जाये. मुझे लगा कि आतंकवाद एक व्याधि है- बीमारी है. और यदि यह सत्य है तो मुझे इस व्याधि का निदान खोजने का प्रयास तो अवश्य ही करना चाहिए . आवश्यकतानुसार मुझे इसके कारण, प्रसार के माध्यम ,इसके शिकार एवं निदान पर गहन विचार करने की प्रेरणा मिली और मैं सोचने लगा....जिस प्रकार अन्य व्याधियों के निदान खोजने की प्रक्रिया है उसी प्रकार के प्रयास इस व्याधि का उपचार खोजने में भी मददगार साबित होंगे - ऐसा ख्याल मेरे ज़हन में उभरा . एक बार  जो   गाडी आगे बढ़ी तो मार्ग स्वयं साफ़ होता गया. 
आतंकवाद के कारण  इस व्याधि के कारणों की तलाश आरम्भ की तो निम्न कारण  नज़र में आये :-
         (क)   नाराजगी
         (ख)   लालच
         (ग)   मजबूरी
         (घ)   राजनीतिक धर्मान्धता
नाराजगी   हर वो व्यक्ति जो "आतंकवादी" का तमगा पहने हुए है वह  अपने मन में नाराजगी का शोला पाले हुए है जिसे समुचित संसाधन एवं परिवेश मिलते ही वह धधक उठता है इस नाराजगी का कारण उचित अथवा अनुचित दोनों ही हो सकते हैं. उस व्यक्ति की नाराजगी प्रशाशन से, समाज से, व्यवस्था से, व्यक्ति से, संस्था से,
अथवा वर्ग-विशेष से हो सकती है .
लालच    आतंकवाद का दूसरा कारण किसी व्यक्ति की लालची प्रवृत्ति भी हो सकती है. अभाव में जी रहे लोगों में ऐसी प्रवृत्ति का पनपना काफी हद तक संभव है. इससे जुड़ा हुआ सबसे बड़ा सच यह है कि आतंकवाद फैलाने वाली संस्थाओं को ऐसे व्यक्तियों कि हमेशा तलाश रहती है क्योंकि ऐसी परिस्थितियों में पल रहे लोगों का ऐसी संस्थाओं के जाल में फंसने  की काफी सम्भावना रहती है. लालच-वश ऐसे लोग इनके चंगुल में फंस कर आतंकी गतिविधियों में लिप्त हो सकते हैं.
मजबूरी   कई बार आतंकी संस्थाएं ऐसे लोगों को अपने चंगुल में जकड लेती हैं जो मजबूर या लाचार हैं ; जैसे गरीब और बेरोजगार युवक या बच्चे तथा आवेश - वश कभी-कभी गैर कानूनी अथवा गैर सामाजिक कार्य करने वाले लोग. एक बार चंगुल में आ जाने पर ऐसे लोग आतंकवादियों के इशारों पर नाचने को मजबूर हो जाते हैं तथा उनकी हर गलत-सही बात मानने को मजबूर कर दिए जाते हैं .
राजनीतिक धर्मान्धता   कभी-कभी सत्ता-लोलुप राजनीतिज्ञ अपनी मंशा पूर्ण करने के लिए आतंक फ़ैलाने वालों को छिपे तौर पर प्रश्रय देते हैं तथा झूठे धर्मान्ध्तापूर्ण प्रचार करके समाज को आतंक की लपटों में झोंक देते हैं. ऐसे राजनीतिज्ञ यह भी भूल जाते हैं  कि वे भी इसी समाज का हिस्सा हैं और आज वे जिस विषैले बीज को रोपित तथा सिंचित कररहे हैं वह कल बड़ा होकर जब एक आतंकवादी वृक्ष के रूप में आपनी जड़ें मजबूत कर लेगा तब वह इस समाज को विषैले फलों के सिवाय और कुछ नहीं देगा.
आतंकवाद के शिकार   इस व्याधि का सबसे बड़ा शिकार समाज हैं जो व्यक्तियों ,वर्गों औरजातियों के समूह के रूप में स्थापित है. यही नहीं ,यदि हम समाज की 'संकुचित' परिभाषा के पार हो करदेखें तो यह व्याधि देश, विदेश तथा सम्पूर्ण विश्व में मानवता के लिए एक अभिशाप बन कर फैलती जा रही है.दुनिया के समस्त राष्ट्र इससे पीड़ित एवं भयाक्रांत हैं. अमेरिका, ब्रिटेन, भारत और श्रीलंका जसे देश आए दिन इसका शिकार हो रहे हैं
बच्चे , बूढ़े , महिलायें,अमीर ,गरीब; समाज का कोई भी अंग इस व्याधि से अछूता नहीं रह गया  है . आज किसी के भी दामन पर इसके नापाक छींटों की छाप स्पष्ट देखी जा सकती है.
आतंकवाद के लक्षण   इस बीमारी का सबसे बड़ा लक्षण है समाज में भय या डर का व्याप्त होना . जिस समाज में भय की बहुलता हो उसमे आतंकवाद बहुत तेजी से फैलता  है. इसके विपरीत जो समाज भय-विहीन होकर इसका मुकाबला करने को तत्पर रहता है वहां यह स्वयं को न तो स्थापित कर पाता है और न ही प्रसारित कर पाता है अर्थात आतंकवाद का विरोध करने की सबसे अधिक क्षमता यदि किसी में है तो स्वयं समाज में ही है.
सुरक्षा  बलों की तैनाती तो इस  व्याधि  के  फैलने के बाद  उससे गुत्थम - गुत्था हो कर उसे समाप्त करने के लिए की जाती  है ,किन्तु यदि समाज चौकस  सतर्क और भय-रहित  रहे तो शुरूआती  दौर में ही इस बीमारी को (आतंकवाद को) फैलने से पहले ही दबाया जा सकता है जिससे की इसे पनपने का कोई मौका ही न मिल सके . इस प्रकार समाज को  मानव शरीर के रूप में देखें जिसमे सभी रोगों से लड़ने की अंदरूनी क्षमता स्वतः ही विद्यमान है . और चूंकि समाज ही इस बीमारी का सबसे बड़ा शिकार है, इसलिए उसे ही सर्वप्रथम प्राथमिक उपचार वाले कदम उठाने चाहिए . 
आतंकवाद का उपचार   जिस प्रकार किसी भी बीमारी से बचाव के लिए रोक-थाम ही पहला व जरूरी कदम है,
उसी प्रकार आतंकवाद के उपचार में भी सबसे अहम् भूमिका रोक-थाम की ही है.इसके कारणों पर गहन विचार करते हुए हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए कि कारणों को ही जड़ से मिटाया जा सके .यह कार्य दो संस्थाएं बखूबी कर सकती हैं . पहली संस्था  है समाज तथा दूसरी है सरकार.समाज को सदैव सजग रहते हुए अपने प्राथमिक कर्त्तव्य का निर्वहन करना होगा .सरकार से पहले उसे स्वयं ही आगे आना होगा. हम सब ही तो  समाज का हिस्सा हैं फिर दूसरों को आरोपित करने से पहले हमें अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए  .आप और हमसे ही समाज बनता है परन्तु जहाँ कहीं हमारी सामाजिक जिम्मेवारी निभाने की बात आती है वहां हम पीछे  हट जाते हैं . किसी भी घटनास्थल पर समाज का कोई न कोई प्रतिनिधि या घटक अवश्य मौजूद होता है.
और वह प्रतिनिधि अपनी सामाजिक जिम्मेवारी निभाते हुए सम्बंधित सरकारी संस्था को समय रहते सूचना दे दे तो संभवतः अनेको दुर्घटनाओं को होने से बचाया जा सकता है. समाज को अपने पास-पड़ोस में हो रही गतिविधियों के प्रति सजग और जागरूक रहना होगा. संदिग्ध कार्यों और उनसे सम्बद्ध प्रत्येक  व्यक्ति अथवा संस्था के खिलाफ बेझिझक औरनिडर होकर उंगली उठानी  होगी. " मुझे फर्क नहीं  पड़ता... मैं क्यों करूँ " की प्रवृत्ति छोडनी होगी. हमेंअपने भीतर से भय को निकाल फेंकना होगा. क्योंकि ये भय ही तो है जिसका लाभ  एक आतंकी उठाता है.यदि पहला और दूसरा व्यक्ति जिसे कोई आतंकी धमकाता है ,हिम्मत जुटा कर उस पर टूट पड़ें तो उसका हौसला स्वतः ही पस्त हो जायेगा. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि एक आदमी के लिए एक ही काफी होता है.ऐसी दशा में अधिक से अधिक वह एक या दो की जान से खेल सकता है, परन्तु अन्य लोगों की जागी हुई हिम्मत उसका कचूमर बना डालेगी . यही वह सामाजिक महामंत्र है जो आतंकवाद को जड़ से उखाड़  फेकने में कारगर सिद्ध होगा .आवश्यकता है तो बस इस महामंत्र को समाज के सभी अंगों की दिनचर्या में ढालने की , इसे रग-रग में घोल देने की.जिस दिन समाज भय- विहीन होकर आतंक को चुनौती देने लग जायेगा उस दिन से ही आतंक  की बीमारी का खात्मा होना शुरू हो जायेगा. इसके बाद दूसरी संस्था (सरकार) की जिम्मेवारी आती है . सरकार की नैतिक जिम्मेवारी है की वह अपने नागरिकों की सुरक्षा का ऐसा प्रबंध करे कि
कोई चूक न होने पाए . देश का खुफियातंत्र इतना चाक-चौबंद हो कि कोई हादसा पेश आने से पहले ही उसे भांप 
कर उचित कदम उठाया जा सके . हमें अपने सुरक्षा-बलों की क्षमता पर कोई शक नहीं है . जरूरत है तो सिर्फ उन्हें नवीनतम संसाधनों से लैस करने की तथा सदैव उनका ऊँचा मनोबल बनाये रखने की. न्याय प्रक्रिया को 
भी नए सिरे से सुदृढ़ करने कीआवश्यकता है जिसमें आतंकवाद सेनिपटने के लिए त्वरित एवं सख्त से सख्त
प्रावधान हों . आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त लोगों को आम गुनह्गारों की श्रेणी से अलग रखा जाए. उनके खिलाफ जल्द से जल्द और सख्त से सख्त सजा का प्रावधान हो जिसे देखकर किसी भी गुनाहगार की रूह काँप उठे . साथ ही साथ यह सबसे जरूरी है की सरकार अपने नागरिकों की समस्याओं के प्रति सदैव सजग रहे और उन्हें अनदेखा न करे .समय रहते ही उनका समाधान निकाले जिससे किसी के मन में दुर्भावना पलने न पाए . इसके बाद एक तीसरी संस्था संचार माध्यमों की है जो आतंकवाद को नेस्तनाबूद करने में अहम् भूमिका निभा सकती है. मीडिया को चाहिए की वे अपना कार्य करते वक्त देशहित को नज़रंदाज़ ना करें . अंततः यदि ये  तीनों  संस्थाएं मिलकर अपना -अपना कर्त्तव्य निष्ठापूर्वक निभाएं तो निश्चय ही आतंकवाद रुपी व्याधि से छुटकारा मिल जायेगा .

जय हिंद - जय भारत .



   

Saturday, 20 August 2011

Aazadee

आजादी

बापू यह कैसी आजादी 
तूँने हमको क्या दिलवा दी ...
बापू यह कैसी आजादी

पूछ रहे हैं दीन-हीन जन 
पूछ रहे हैं दुखियारे  मन 
पूछ रहे हैं बागीचे-वन 
तूँने हमको क्यों दिलवा दी ,  बापू यह ऐसी आजादी ? 

जिनको चलना आगे आगे 
वे पैसों के पीछे भागे 
टूटे नैतिकता के धागे 
घर घर में है आग लगा दी , बापू यह कैसी आजादी ? 

हक़ की बात करे हर कोई 
जिम्मेदारी नहीं है कोई 
माँ  बहनों ने अस्मत खोई 
हालत देख आत्मा रोई 
दोषी छुट्टे घूम रहे हैं ...
निर्दोषी को जेल दिला दी , बापू यह कैसी आजादी ?
शिष्य गुरु से अकड़ पड़े हैं 
भाई भाई झगड़ पड़े हैं 
पति पत्नी में रगड़ पड़े हैं 
रथ के पहिये जकड़ पड़े हैं 
जाने कैसी ग्रीस लगा दी , बापू यह कैसी आजादी ? 
तूँने हमको क्यों दिलवा दी ,  बापू यह ऐसी आजादी ?

                                                                                                   ... अजय 

Dard Se Naata

दर्द से नाता 

कितना गहरा हमारा नाता है ...
कि दर्द रह - रह के उभर आता है

तिनका तिनका जुटा के लाये हम ...
बन के बवंडर वो चला आता है
कि दर्द रह - रह के उभर आता है

सर्दियाँ गुजर गयीं ठिठुरते हुए ...
गर्मियों में मुझे लिहाफ वो उढाता है
कि दर्द रह - रह के उभर आता है

जख्म सूखें भी तो सूखें कैसे ...
तीखे नाखून वो दिखाता है
कि दर्द रह - रह के उभर आता है

रतजगे हमने किये जिनकी नींदों के लिए ...
वो ही मेरे घर को लूटे जाता है
कि दर्द रह - रह के उभर आता है

जियेगा वो भी चैन से कैसे...
जो हमें इस क़दर रुलाता है
कि दर्द रह - रह के उभर आता है

१९अप्रैल २००८                                  ...अजय 

Tuesday, 16 August 2011

Patte Ki Pukar

पत्ते की पुकार

दिन के भोजनोपरांत, 
एक अलसाई दोपहर 
जम्हाई ले मैंने ज्योंही 
खोला था अपने घर का दर 

यूँ लगा मुझे इक थकी - थकी
आवाज कहीं से  है आई
बाहर आकर असमंजस में
नज़रें तब मैंने दौड़ाई

प्रत्यक्ष न कोई दिखा मुझे
तो मैं  अचरज से  झल्लाया 
सोचा, शायद मेरा भ्रम हो
मैं उलटे कदम लौट आया 

पुनः उसी स्वर की पुकार ने 
मुझको जरा झिंझोड़ दिया 
मेरी अलसाई तन्द्रा को 
मुझ तक आकर के तोड़ दिया

पलटा तो मैंने देखा कि...
एक पत्ता है अधपीला सा 
वह गिरा पड़ा था निर्बल सा 
हालत में थोड़ा ढीला सा

मेरी उत्सुकता ने शायद
उसके मन में हिम्मत बांधी
वह कहने लगा, "सुनो भाई ...
ना लाइ मुझे यहाँ  आंधी ..."

"बस धीमी हवा का झोंका था
जिसको मैंने ना टोका था 
फिर भी वह मुझे उड़ा लाया
मैं बेबस था, बस चिल्लाया "

"मेरी सुनने को कौन कहे 
सब अपनी धुन में रमे रहे 
न सोचा कि  फिर यही कथा 
एक दिन कोई दोहराएगा " 

"जिस शाखा की मैं शोभा था 
जिस वृक्ष को मैंने रंग दिया 
उन सबकी बे-परवाही ने 
बेहद ही मुझको दंग किया "

पत्ते का मन था दुखी-दुखी
अपनों की देखी थी बेरुखी 
थी कसक जुदाई की न उन्हें 
जिनके संग था वह कभी सुखी 

वृद्धावस्था उसका आया 
तब सबने उसको बिसराया
जर्जर, पीला, हो शक्तिहीन,
वह आज मेरे द्वारे आया 

मैं आभारी हूँ पत्ते का
जिसने मुझको यह सिखलाया 
"तेरा" "मेरा" सब मिथ्या है 
यह जीवन तो झूठी माया 

09 मार्च 09                                                    ...अजय  

Wednesday, 10 August 2011

Yaden

यादें

उम्र की इस दहलीज पर 
अक्सर सोचता हूँ
कि सफ़र का आख़िरी दौर 
कितना एकाकी व तनहा है ...

तभी खयालों की आंधी 
आकर झकझोर जाती है
और मैं अतीत की यादों से
स्वयं को घिरा पाता हूँ ...

कुछ मीठी, कुछ खट्टी,
कुछ विशिष्ट इन्द्रधनुषी
और कुछ साहित्य के ...
नौ रसों में सराबोर सी 

यादों के संग फिर से
जीवंत हो उठता हूँ ...
आगामी सफ़र के लिए 
यह मान कर कि मैं 
तनहा कहाँ हूँ ...

यादें मेरी संगिनी हैं ...
अंतिम पड़ाव तक
क्या इन्हें मैं भूल सकता हूँ ...
जब तक जीवन है..?

०४ जुलाई ०४                                  ...अजय 

Saturday, 6 August 2011

Ujadataa Gulshan

उजड़ता गुलशन 

उजड़ते   गुलशन में मैं 
कुछ गुल खिलाना चाहता हूँ 
सुप्त हिंदुस्तानियत को... 
फिर जगाना चाहता हूँ 

यह वही भारत है जिससे 
ज्ञान की गंगा बही है 
शून्य देकर विश्व को हमने 
गणित गाथा कही है 
कम किसीसे हम नहीं ...
मैं यह बताना चाहता हूँ 
सुप्त हिंदुस्तानियत को...
फिर जगाना चाहता हूँ 

हाथ में गीता उठाकर
रोज कसमें खा रहे हैं
पहुँच कर इजलास पर 
हम गीत झूठे गा रहे हैं
न्याय भी दूषित हुआ...
मैं यह जताना चाहता हूँ
सुप्त हिंदुस्तानियत को...
फिर जगाना चाहता हूँ 

स्वर्ण-खग गरिमा थी जिसकी
आज हमने है गंवाई
सोच कर देखो जरा 
यह सेंध किसने है लगाई
आत्म-मंथन मंच पर...
तुमको बुलाना चाहता हूँ
सुप्त हिंदुस्तानियत को....
फिर जगाना चाहता हूँ 

नौजवाँ इस देश के... पर
रुख किये विदेश को हैं
नीतियों में खामियां...?
या घुन लगे परिवेश को हैं
ऊंघते नेतृत्व  को...
झकझोर जाना चाहता हूँ
सुप्त हिंदुस्तानियत को...
फिर जगाना चाहता हूँ 

बँट गया समाज है 
कहीं धर्म पर कहीं जात पर
कौन हो जाए खफ़ा... 
किस वक़्त या किस बात पर
टूटने न पाए जो ...
डोरी बनाना चाहता हूँ
सुप्त हिंदुस्तानियत को...
फिर जगाना चाहता हूँ 

गाँव संकुचित हुए हैं 
शहर गुब्बारे बने
खेत में ईंटें उगी हैं,
मेढ़ दीवारें बनें 
अन्न उपजेगा कहाँ ...
जिसको मैं खाना चाहता हूँ
सुप्त हिंदुस्तानियत को...
फिर जगाना चाहता हूँ 

रोज हिंसा कर रहे हम 
बुद्ध को बिसार कर
हैं लक्ष्मी को पूजते 
गृह-लक्ष्मी को मार कर
राक्षसी दहेज़ को
जड़ से मिटाना चाहता हूँ...
सुप्त हिंदुस्तानियत को...
फिर जगाना चाहता हूँ 

काट कर वृक्षों को हमने
रोटियां अपनी तली हैं 
जल प्रदूषित हो गया 
जलवायु दूषित हो चली हैं
साथ दो यदि तुम मेरा...
उपवन बसाना चाहता हूँ
सुप्त हिंदुस्तानियत को...
फिर जगाना चाहता हूँ 

भात की खुशबू तो है पर
दाल के दर्शन नदारद
सब्जियों में रंग भरें ...
घी दूध के अद्भुत विशारद
नियन्ताओं की भरी... 
जेबें दिखाना चाहता हूँ
सुप्त हिंदुस्तानियत को...
फिर जगाना चाहता हूँ 

उजड़ते   गुलशन में मैं 
कुछ गुल खिलाना चाहता हूँ 
सुप्त हिंदुस्तानियत को... 
फिर जगाना चाहता हूँ 

2७ मई ०९                     ...अजय 







Thursday, 4 August 2011

विकास या पतन...

विकास ?... या पतन !




सहरी चमक दमक में, ढेबरी भुला गइल,
चान मामा के अँजोरिया, जाने कहाँ गइल।


प्लास्टिक के बन में हेराई गइली गगरी
कुशन की गद्दा से, दबाई गइली गुदरी 

फैसन की बनर-दौड़ में...(२),
चुनरी भुला गइल...
चान  मामा के अँजोरिया...


बैला बिकाइल, ट्रैक्टर से होला दँवरी
गाय  ना  पोसाली, नकली दूधवा के फैक्टरी
लाख के मिठाई...(२), 

जहरी बिका गइल...
चान मामा के अँजोरिया...

टोपियन की दौड़ में, भुलाई गइली पगरी,
सूटवन की सामने, लजाये लगली सदरी,
कान फारे डीजे(DJ)...(२), 

कजरी भुला गईल...
चान मामा के अँजोरिया...

गाँव के उजारि के, आबाद भइली नगरी,
हाईवे सँवारे के, वीरान कईलें डगरी,
बिजुरी से जरे लाश...(२),

लकड़ी भुला गइल...
चान मामा के अँजोरिया...


पूत कहीं गइलें, अपनी राहें गइली धियरी,
चिठिया भुलाइल, आ भुलाई गइली पतरी,
दफ्तर  की गर्लफ्रेंड में...(२), 

मेहरी भुला गइल...
चान मामा के अँजोरिया... जाने कहाँ गइल
                              
                             ~अजय 'अजेेेय'

Thursday, 28 July 2011

बाबूजी का निधन

बाबूजी का निधन...

आज ढह गयी वही इमारत
जिसमें हम सब पलते थे
तपी धूप, बरखा, आंधी में 
जिसकी छाँव निरखते थे

कहाँ गया बगिया का माली,
सबको सींचा करता था
हम सबकी गलती पर भी 
वह आँखें मींचा करता था 

उसने दिया सभी को हरदम,
उसको हम क्या दे पायेंगे
श्रद्धा के दो आंसू भर कर 
उसकी याद पिरो लायेंगे

पूछा सबने, मुझसे आकर
चेहरा अश्कों से क्यों धोया
इस जीवन की तो रीत यही...
बोया-काटा , काटा-बोया 

होगी दुनिया की रीत, सही 
पर मैंने तो है अब खोया
क्या बतलाऊँ, मैं क्या बोलूँ...
मैं अँखियाँ भर भर क्यों रोया

झुका शीश है, आँखें नम हैं
कान खोजते उसके स्वर को 
आयेगा क्या वापस मुड़ कर 
नज़रें ताकें, फैले दर को 

2४ दिसंबर २००४                              ~~~अजय ।

Saturday, 23 July 2011

बेरुखी

वो बेरुखी उनकी, बड़ा बवाल कर गयी 
हँसते हँसाते दिल से इक सवाल कर गयी

खोये थे खुश-गँवार हम, लम्हे किये नज़र
अक्सर हमारे दिल पे जो, वो चाल, कर गयी
वो बेरुखी उनकी...

छूकर बदन उनका हवा, आती हमारे पास
और जाते जाते हमको माला-माल कर गयी
वो बेरुखी उनकी...

गम-सुम सा वो चेहरा, और झुकी झुकी नज़र
किसी और के होकर चले, कदम जो दर बदर,
वह फूल सी कटार, जिसकी धार भी न थी
वो इस गरीब को यूँ ही हलाल कर गयी
वो बेरुखी उनकी...

१५ फरवरी ०६                           ...अजय 

Thursday, 21 July 2011

"हादसा" (मेरठ की आग से प्रेरित)

आज फिर एक बस्ती जल गयी
दूर-दर्शन जागा, ख़बरें उछल गयीं

राजनीतिक तवे को रोटी मिली 
सेंकनहारी  टोलियाँ मचल गयीं

किसको है चिंता कि किसने क्या खोया
किसकी खुशी आँसुओं में ढल गयी
कौन है रौंदा गया किसके तले
किसके होंठों कि हँसी घायल हुई

धुल गया सिन्दूर किसकी मांग का
किसके घर कि खनकती पायल गयी

रो रहा है पूत माँ का बिलखता
साथ लेकर सर का वह आँचल गयी

मौत का मंज़र भयानक है नज़र
देख कर है आत्मा दहल गयी

सिर्फ मेरठ कि नहीं यह दास्ताँ
लौट कर आयेंगी जो हैं टल गयीं
और भी होंगे हजारों हादसे
मानवीय संवेदना है जल गयी

देखिये मैदान वाली-बाल का 
"जिम्मेवारी" गेंद कि शकल हुई 
जिसकी ओर भी गयी, चपत लगी 
पाला दूसरे ही पल बदल गयी

 कौन ले मौतों कि जिम्मेदारियाँ
हाथ-झाड़न की प्रथा प्रबल भई 
तीर हैं आरोप-प्रत्यारोप के 
कर्म के प्रति चेतना है जल गयी

(मई २००६)                                          ...अजय 

आज गंगा मर रही है

आज गंगा मर रही है ...

आज गंगा मर रही है
आख़िरी दम भर रही है

रो रहा है "यम" समंदर
बिलखते हैं शैल, गिरिवर
विनय करते संत, मुनिवर  
हे जगत्पति , भाल-शशिधर 
कर कृपा इसको बचालो...
आज गंगा मर रही है
आख़िरी दम भर रही है

देख लो निष्ठुर "निठारी"
बालकों पर काल भारी
वर्दियों को घुन लगे हैं
रक्षकों को नींद प्यारी
"भक्षकों" के चंद सिक्कों का 
वजन जनता पे भारी
नींद  से इनको जगा दो...
आज गंगा मर रही है
आख़िरी दम भर रही है

क़त्ल हो रही है श्रद्धा
रोज धोखा खा रही है
मान मर्यादा की अस्मत 
रोज लूटी जा रही है
पहरेदार धुत पड़े हैं 
जान मुजरे गा रही हैं
गश्त नंदी संग लगा दो...
आज गंगा मर रही है
आख़िरी दम भर रही है

आँख की लज्जा मरी है 
स्नेह संग ममता मरी है
तज के शील, वस्त्र, बाला
नाच नंगा कर रही है
द्रौपदी तक जग चुके 
वे कृष्ण शायद सो गए हैं
चीर इनका तुम बढ़ा दो...
आज गंगा मर रही है
आख़िरी दम भर रही है

है  नहीं बस नाम "गंगा"
यह हमारी शान है 
प्राण है  इस देश का
जन-जन का निज-सम्मान है 
इस देश के परिवेश में,
शामिल हवा में, धूल में
थी शाख, भारत-वृक्ष की
यह तन में है, और मूल में
सभ्यता है  यह हमारी
संस्कृति बन कर रही है
देर मत क्षण भर लगाना
प्रकट हो इसको सम्हालो...
आज गंगा मर रही है
आख़िरी दम भर रही है

क्या यही वह देश है
जिसमें रहा करते थे तुम
शैल-पुत्री संग लीलाएं
रचा करते थे तुम...?
स्वर्ग से पृथ्वी पे गंगा को 
तुम्ही ने राह दी थी
और इस गंगा ने 
सारे देश को निर्वाह दी थी
हो चुकी "जल" हीन यह
अब चंद साँसे भर रही है...
है अगर रिश्ता कोई तो 
आ के गंगाजल पिला दो...
आज गंगा मर रही है
आख़िरी दम भर रही है

 (10 अप्रैल 07)               ...अजय 
(यम = यमराज जो कभी  किसी के लिए रोता नहीं )