उजड़ता गुलशन
उजड़ते गुलशन में मैं
कुछ गुल खिलाना चाहता हूँ
सुप्त हिंदुस्तानियत को...
फिर जगाना चाहता हूँ
यह वही भारत है जिससे
ज्ञान की गंगा बही है
शून्य देकर विश्व को हमने
गणित गाथा कही है
कम किसीसे हम नहीं ...
मैं यह बताना चाहता हूँ
सुप्त हिंदुस्तानियत को...
फिर जगाना चाहता हूँ
हाथ में गीता उठाकर
रोज कसमें खा रहे हैं
पहुँच कर इजलास पर
हम गीत झूठे गा रहे हैं
न्याय भी दूषित हुआ...
मैं यह जताना चाहता हूँ
सुप्त हिंदुस्तानियत को...
फिर जगाना चाहता हूँ
स्वर्ण-खग गरिमा थी जिसकी
आज हमने है गंवाई
सोच कर देखो जरा
यह सेंध किसने है लगाई
आत्म-मंथन मंच पर...
तुमको बुलाना चाहता हूँ
सुप्त हिंदुस्तानियत को....
फिर जगाना चाहता हूँ
नौजवाँ इस देश के... पर
रुख किये विदेश को हैं
नीतियों में खामियां...?
या घुन लगे परिवेश को हैं
ऊंघते नेतृत्व को...
झकझोर जाना चाहता हूँ
सुप्त हिंदुस्तानियत को...
फिर जगाना चाहता हूँ
बँट गया समाज है
कहीं धर्म पर कहीं जात पर
कौन हो जाए खफ़ा...
किस वक़्त या किस बात पर
टूटने न पाए जो ...
डोरी बनाना चाहता हूँ
सुप्त हिंदुस्तानियत को...
फिर जगाना चाहता हूँ
गाँव संकुचित हुए हैं
शहर गुब्बारे बने
खेत में ईंटें उगी हैं,
मेढ़ दीवारें बनें
अन्न उपजेगा कहाँ ...
जिसको मैं खाना चाहता हूँ
सुप्त हिंदुस्तानियत को...
फिर जगाना चाहता हूँ
रोज हिंसा कर रहे हम
बुद्ध को बिसार कर
हैं लक्ष्मी को पूजते
गृह-लक्ष्मी को मार कर
राक्षसी दहेज़ को
जड़ से मिटाना चाहता हूँ...
सुप्त हिंदुस्तानियत को...
फिर जगाना चाहता हूँ
काट कर वृक्षों को हमने
रोटियां अपनी तली हैं
जल प्रदूषित हो गया
जलवायु दूषित हो चली हैं
साथ दो यदि तुम मेरा...
उपवन बसाना चाहता हूँ
सुप्त हिंदुस्तानियत को...
फिर जगाना चाहता हूँ
भात की खुशबू तो है पर
दाल के दर्शन नदारद
सब्जियों में रंग भरें ...
घी दूध के अद्भुत विशारद
नियन्ताओं की भरी...
जेबें दिखाना चाहता हूँ
सुप्त हिंदुस्तानियत को...
फिर जगाना चाहता हूँ
उजड़ते गुलशन में मैं
कुछ गुल खिलाना चाहता हूँ
सुप्त हिंदुस्तानियत को...
फिर जगाना चाहता हूँ
2७ मई ०९ ...अजय
देशभक्ति की भावना से ओत-प्रोत ..बहुत सुंदर रचना ...
ReplyDeleteबधाई एवं शुभकामनायें.
समीचीन और भावपूर्ण रचना...... बधाई....
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