सरहद के पार भी...
सरहद के उस पार भी...
एक ऐसा गाँव है.
ऐसा ही पनघट है,
और बड़, पीपल की छाँव है.
लोरियां वहां भी, गाती हैं माताएं
सर्दी की शामों को जलती अलाव है .
दर्द वैसा ही है, अपनों से बिछुड़ने का वहां,
जैसे, यहाँ सीनों में रिसता यह घाव है .
वैधव्य की कसक उतनी ही, कसैली है वहां भी,
जितनी चुभन भरी, "सफ़ेद साड़ी" की छाँव है.
रक्त का रंग उतना ही, सुर्ख है वहां भी,
उतना ही पावन , महावर लगा पाँव है.
बेटों की मौत पर, वहां भी बहते हैं अश्क ही,
जैसे यहाँ शहीदों के लिए, होता यह स्राव है.
माँ की ममता तो, वहां भी शीतल ही है,
नदियों के घाटों पर, वही लकड़ी की नाव है.
जब सब एक सा है, तो कौन ऐसा कर गया...?
भाइयों के बीच का वो भाई-चारा मर गया.
साथ बैठ कर खाता, था उसी थाली में जो,
प्रेम की थाली को, अपने हाथों बेध कर गया
०४ अक्तूबर ११ ...अजय
बहुत खूब......
ReplyDeleteBahut hi behatareen comparison hai! :) Badhaai itni sundar Bhaavaabhivyakti ke liye...
ReplyDeletemaarmik rachna.../
ReplyDeleteआप सभी को हार्दिक धन्यवाद
ReplyDeleteBahut hi Dil ko chhune wali hai !
ReplyDeleteधन्यवाद शेखर जी . अपना परिचय देते तो अच्छा होता .
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