पत्ते की पुकार
दिन के भोजनोपरांत,
एक अलसाई दोपहर
जम्हाई ले मैंने ज्योंही
खोला था अपने घर का दर
यूँ लगा मुझे इक थकी - थकी
आवाज कहीं से है आई
बाहर आकर असमंजस में
नज़रें तब मैंने दौड़ाई
प्रत्यक्ष न कोई दिखा मुझे
तो मैं अचरज से झल्लाया
सोचा, शायद मेरा भ्रम हो
मैं उलटे कदम लौट आया
पुनः उसी स्वर की पुकार ने
मुझको जरा झिंझोड़ दिया
मेरी अलसाई तन्द्रा को
मुझ तक आकर के तोड़ दिया
पलटा तो मैंने देखा कि...
एक पत्ता है अधपीला सा
वह गिरा पड़ा था निर्बल सा
हालत में थोड़ा ढीला सा
मेरी उत्सुकता ने शायद
उसके मन में हिम्मत बांधी
वह कहने लगा, "सुनो भाई ...
ना लाइ मुझे यहाँ आंधी ..."
"बस धीमी हवा का झोंका था
जिसको मैंने ना टोका था
फिर भी वह मुझे उड़ा लाया
मैं बेबस था, बस चिल्लाया "
"मेरी सुनने को कौन कहे
सब अपनी धुन में रमे रहे
न सोचा कि फिर यही कथा
एक दिन कोई दोहराएगा "
"जिस शाखा की मैं शोभा था
जिस वृक्ष को मैंने रंग दिया
उन सबकी बे-परवाही ने
बेहद ही मुझको दंग किया "
पत्ते का मन था दुखी-दुखी
अपनों की देखी थी बेरुखी
थी कसक जुदाई की न उन्हें
जिनके संग था वह कभी सुखी
वृद्धावस्था उसका आया
तब सबने उसको बिसराया
जर्जर, पीला, हो शक्तिहीन,
वह आज मेरे द्वारे आया
मैं आभारी हूँ पत्ते का
जिसने मुझको यह सिखलाया
"तेरा" "मेरा" सब मिथ्या है
यह जीवन तो झूठी माया
09 मार्च 09 ...अजय
बहुत सुंदर भाव से लिखी है कविता |मन के कोमल भाव बड़ी सुन्दरता से व्यक्त किये हैं...!!
ReplyDeleteबधाई एवं शुभकामनायें..!!
My poem needs ur views.
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