काँच का घर...
काँच का घर, काँच का दर, काँच की खिड़की,
नहीं बयाँ किसी मकान का है, ... है ये घर की लड़की...
काँच का घर, काँच का दर ...
किस तरह सजाऊँ मैं, संवारूँ और सहेजूँ ...इसको,
सिहर उठता हूँ जब भी, कोई बिजली, कड़की
काँच का घर, काँच का दर ...
गया वो वक़्त जो ये, फटकार सुना करते थे,
आज ये सह नहीं पाते हैं , मामूली, झिड़की
काँच का घर, काँच का दर ...
मुझे यकीन भी है , मेरी परवरिश पे मगर,
बे-यकीं समा,... है फिजाओं में, आँधियाँ, भड़की
काँच का घर, काँच का दर ...
नज़र से बचने का, टीका भी, अब नकारा हुआ,
देखते-देखते छुटकी है, हो चली, बड़की....
नहीं बयाँ किसी मकान का है, ... है ये घर की लड़की...
काँच का घर, काँच का दर ... काँच की खिड़की
29/11/2010 ~~~अजय
नज़र से बचने का टीका भी अब नकारा हुआ
ReplyDeleteदेखते-देखते छुटकी है हो चली बड़की....
Waah!!! Har ek sher gajab ka likha hai! :) Bilkul naye jaisa... taaza sa...
बहुत सुन्दर ह्रदय के उदगार ...
ReplyDeleteअद्भुत रचना ...!!
शुभकामनायें ...!!
BAHUT KHOOB BHAI !
ReplyDeleteबारिश में तालाब हो जाते है कमजर्फ
ReplyDeleteबाहर आपे से कभी समंदर होता नही...
सतीश गिर गोस्वामी "पागल"
यही तो समंदर की महान मर्यादा है सतीश जी ... बहुत खूब
Deleteजिंदगी के अंतिम सफ़र में पेश की गयी ये चंद पंक्तियाँ
ReplyDeleteउम्मीद है पसंद जरुर आएँगी..
इस आँगन से रिश्ता हमारा ख़त्म हुआ
उठो ,ख्वाबों का नज़ारा ख़त्म हुआ.……
कब तक टिमटिमाता आखिर दुनिया की खातिर;
वो बेज़ार चमकता सितारा ख़त्म हुआ.…..
घर लौटे हैं बच्चे मायूस हो कर;
समुंदर से मिटटी का पुश्तारा ख़त्म हुआ.…
उड़ गए हैं पंछी घरौंदा छोड़;
इस जगह से उनका आब-ओ-चारा ख़त्म हुआ..
चल पड़े हैं खानाबदोश कहीं दूर...
फिर तनहा सफ़र शुरू हुआ,उम्मीद साथ उनका ख़त्म हुआ …..
देखो उस और के कोई लाश उठ रही है....
एक बुज़ुर्ग का आखिरी सहारा ख़त्म हुआ...
कह दो अलविदा दोस्तों से तुम पागल"
की अब बेरहम ज़िन्दगी का इशारा ख़त्म हुआ.....
सतीश गिर गोस्वामी "पागल"
बहुत अच्छी अभिव्यक्ति ....सतीश जी
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