ग़ज़ल : इस मुलाक़ात को...
इस मुलाक़ात को मत आख़िरी समझ लेना
फिर किसी मोड़ पे, जाते हुए मिल जाऊँगा
गीत जो तुमने दिए हैं, हमारे होंठों को
उन्ही धुनों को, गुनगुनाते हुए मै आऊंगा
जहाँ रहो , सदा हंसते, मुस्कराते रहो
जब भी चाहोगे , तस्सव्वुर में उभर जाऊँगा
ये जहाँ लाखों सितम ढाए,या जुलम कर ले
मैं कहीं पास ही, अपना भी घर बनाऊंगा
मौत चाहे तो, यूँ तुमसे मुझे अलग समझे
मैं तो मर कर भी,बस तेरा ही अब कहाऊंगा
वक़्त नाराज है मुझसे , तो मेरी राहें खफ़ा
साथ दो गर मेरा , मैं वक़्त को मनाऊंगा
इस मुलाक़ात को मत आख़िरी समझ लेना
फिर किसी मोड़ पे जाते हुए मिल जाऊँगा .
04/11/2010 ...अजय
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