सियासत की बेड़ियाँ ...
(अफज़ल पर सियासत ?)
सोख कर आंसू लकीरें बन रहीं थीं गाल पर,
(अफज़ल पर सियासत ?)
सोख कर आंसू लकीरें बन रहीं थीं गाल पर,
तब कहाँ थे ये सियासतदार इतने साल भर,
पूछते हैं पुत्र, माता , पत्नियाँ इस चाल पर,
है कोइ उत्तर तो दे दो आज इस सवाल पर ।
खैर, अब जो भी हुआ, उससे मिला सुकून है,
बंद लिफ़ाफ़ा है मगर एक खुला मजमून है...
कि जो करेंगे वो भरेंगे, जल नहीं यह खून है,
बह रहा जो धमनियों में द्रव बना जूनून है ।
मत परीक्षा ले कोई अब और मेरे धीर की,
टूट जाएँगी अगर ये, बेड़ियाँ रणवीर की
रुक नहीं पायेगी धारा, शांत गंगा-नीर की
जल नहीं शोणित बहेगा चोटियों से "पीर" की .
12 फरवरी 13 ...अजय
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