आतंकवाद : व्याधि और उपचार
कलम ने विराम लिया और विचारों की बेल को जैसे सहारा मिल गया.श्रृंखला की भांति ,एक के बाद एक जैसे कड़ियाँ जुड़ती चली जाती हैं,विचारों ने राह पकड़ ली. विचाराधीन विषय था- आतंकवाद . एक लघु-अंतराल के बाद मैंने कलम को फिर जीवंत कर दिया; डर था कहीं कुछ छूट न जाये. मुझे लगा कि आतंकवाद एक व्याधि है- बीमारी है. और यदि यह सत्य है तो मुझे इस व्याधि का निदान खोजने का प्रयास तो अवश्य ही करना चाहिए . आवश्यकतानुसार मुझे इसके कारण, प्रसार के माध्यम ,इसके शिकार एवं निदान पर गहन विचार करने की प्रेरणा मिली और मैं सोचने लगा....जिस प्रकार अन्य व्याधियों के निदान खोजने की प्रक्रिया है उसी प्रकार के प्रयास इस व्याधि का उपचार खोजने में भी मददगार साबित होंगे - ऐसा ख्याल मेरे ज़हन में उभरा . एक बार जो गाडी आगे बढ़ी तो मार्ग स्वयं साफ़ होता गया.
आतंकवाद के कारण इस व्याधि के कारणों की तलाश आरम्भ की तो निम्न कारण नज़र में आये :-
(क) नाराजगी
(ख) लालच
(ग) मजबूरी
(घ) राजनीतिक धर्मान्धता
नाराजगी हर वो व्यक्ति जो "आतंकवादी" का तमगा पहने हुए है वह अपने मन में नाराजगी का शोला पाले हुए है जिसे समुचित संसाधन एवं परिवेश मिलते ही वह धधक उठता है इस नाराजगी का कारण उचित अथवा अनुचित दोनों ही हो सकते हैं. उस व्यक्ति की नाराजगी प्रशाशन से, समाज से, व्यवस्था से, व्यक्ति से, संस्था से,
आतंकवाद के कारण इस व्याधि के कारणों की तलाश आरम्भ की तो निम्न कारण नज़र में आये :-
(क) नाराजगी
(ख) लालच
(ग) मजबूरी
(घ) राजनीतिक धर्मान्धता
नाराजगी हर वो व्यक्ति जो "आतंकवादी" का तमगा पहने हुए है वह अपने मन में नाराजगी का शोला पाले हुए है जिसे समुचित संसाधन एवं परिवेश मिलते ही वह धधक उठता है इस नाराजगी का कारण उचित अथवा अनुचित दोनों ही हो सकते हैं. उस व्यक्ति की नाराजगी प्रशाशन से, समाज से, व्यवस्था से, व्यक्ति से, संस्था से,
अथवा वर्ग-विशेष से हो सकती है .
लालच आतंकवाद का दूसरा कारण किसी व्यक्ति की लालची प्रवृत्ति भी हो सकती है. अभाव में जी रहे लोगों में ऐसी प्रवृत्ति का पनपना काफी हद तक संभव है. इससे जुड़ा हुआ सबसे बड़ा सच यह है कि आतंकवाद फैलाने वाली संस्थाओं को ऐसे व्यक्तियों कि हमेशा तलाश रहती है क्योंकि ऐसी परिस्थितियों में पल रहे लोगों का ऐसी संस्थाओं के जाल में फंसने की काफी सम्भावना रहती है. लालच-वश ऐसे लोग इनके चंगुल में फंस कर आतंकी गतिविधियों में लिप्त हो सकते हैं.
मजबूरी कई बार आतंकी संस्थाएं ऐसे लोगों को अपने चंगुल में जकड लेती हैं जो मजबूर या लाचार हैं ; जैसे गरीब और बेरोजगार युवक या बच्चे तथा आवेश - वश कभी-कभी गैर कानूनी अथवा गैर सामाजिक कार्य करने वाले लोग. एक बार चंगुल में आ जाने पर ऐसे लोग आतंकवादियों के इशारों पर नाचने को मजबूर हो जाते हैं तथा उनकी हर गलत-सही बात मानने को मजबूर कर दिए जाते हैं .
राजनीतिक धर्मान्धता कभी-कभी सत्ता-लोलुप राजनीतिज्ञ अपनी मंशा पूर्ण करने के लिए आतंक फ़ैलाने वालों को छिपे तौर पर प्रश्रय देते हैं तथा झूठे धर्मान्ध्तापूर्ण प्रचार करके समाज को आतंक की लपटों में झोंक देते हैं. ऐसे राजनीतिज्ञ यह भी भूल जाते हैं कि वे भी इसी समाज का हिस्सा हैं और आज वे जिस विषैले बीज को रोपित तथा सिंचित कररहे हैं वह कल बड़ा होकर जब एक आतंकवादी वृक्ष के रूप में आपनी जड़ें मजबूत कर लेगा तब वह इस समाज को विषैले फलों के सिवाय और कुछ नहीं देगा.
आतंकवाद के शिकार इस व्याधि का सबसे बड़ा शिकार समाज हैं जो व्यक्तियों ,वर्गों औरजातियों के समूह के रूप में स्थापित है. यही नहीं ,यदि हम समाज की 'संकुचित' परिभाषा के पार हो करदेखें तो यह व्याधि देश, विदेश तथा सम्पूर्ण विश्व में मानवता के लिए एक अभिशाप बन कर फैलती जा रही है.दुनिया के समस्त राष्ट्र इससे पीड़ित एवं भयाक्रांत हैं. अमेरिका, ब्रिटेन, भारत और श्रीलंका जसे देश आए दिन इसका शिकार हो रहे हैं
बच्चे , बूढ़े , महिलायें,अमीर ,गरीब; समाज का कोई भी अंग इस व्याधि से अछूता नहीं रह गया है . आज किसी के भी दामन पर इसके नापाक छींटों की छाप स्पष्ट देखी जा सकती है.
आतंकवाद के लक्षण इस बीमारी का सबसे बड़ा लक्षण है समाज में भय या डर का व्याप्त होना . जिस समाज में भय की बहुलता हो उसमे आतंकवाद बहुत तेजी से फैलता है. इसके विपरीत जो समाज भय-विहीन होकर इसका मुकाबला करने को तत्पर रहता है वहां यह स्वयं को न तो स्थापित कर पाता है और न ही प्रसारित कर पाता है अर्थात आतंकवाद का विरोध करने की सबसे अधिक क्षमता यदि किसी में है तो स्वयं समाज में ही है.
आतंकवाद के शिकार इस व्याधि का सबसे बड़ा शिकार समाज हैं जो व्यक्तियों ,वर्गों औरजातियों के समूह के रूप में स्थापित है. यही नहीं ,यदि हम समाज की 'संकुचित' परिभाषा के पार हो करदेखें तो यह व्याधि देश, विदेश तथा सम्पूर्ण विश्व में मानवता के लिए एक अभिशाप बन कर फैलती जा रही है.दुनिया के समस्त राष्ट्र इससे पीड़ित एवं भयाक्रांत हैं. अमेरिका, ब्रिटेन, भारत और श्रीलंका जसे देश आए दिन इसका शिकार हो रहे हैं
बच्चे , बूढ़े , महिलायें,अमीर ,गरीब; समाज का कोई भी अंग इस व्याधि से अछूता नहीं रह गया है . आज किसी के भी दामन पर इसके नापाक छींटों की छाप स्पष्ट देखी जा सकती है.
आतंकवाद के लक्षण इस बीमारी का सबसे बड़ा लक्षण है समाज में भय या डर का व्याप्त होना . जिस समाज में भय की बहुलता हो उसमे आतंकवाद बहुत तेजी से फैलता है. इसके विपरीत जो समाज भय-विहीन होकर इसका मुकाबला करने को तत्पर रहता है वहां यह स्वयं को न तो स्थापित कर पाता है और न ही प्रसारित कर पाता है अर्थात आतंकवाद का विरोध करने की सबसे अधिक क्षमता यदि किसी में है तो स्वयं समाज में ही है.
सुरक्षा बलों की तैनाती तो इस व्याधि के फैलने के बाद उससे गुत्थम - गुत्था हो कर उसे समाप्त करने के लिए की जाती है ,किन्तु यदि समाज चौकस सतर्क और भय-रहित रहे तो शुरूआती दौर में ही इस बीमारी को (आतंकवाद को) फैलने से पहले ही दबाया जा सकता है जिससे की इसे पनपने का कोई मौका ही न मिल सके . इस प्रकार समाज को मानव शरीर के रूप में देखें जिसमे सभी रोगों से लड़ने की अंदरूनी क्षमता स्वतः ही विद्यमान है . और चूंकि समाज ही इस बीमारी का सबसे बड़ा शिकार है, इसलिए उसे ही सर्वप्रथम प्राथमिक उपचार वाले कदम उठाने चाहिए .
आतंकवाद का उपचार जिस प्रकार किसी भी बीमारी से बचाव के लिए रोक-थाम ही पहला व जरूरी कदम है,
उसी प्रकार आतंकवाद के उपचार में भी सबसे अहम् भूमिका रोक-थाम की ही है.इसके कारणों पर गहन विचार करते हुए हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए कि कारणों को ही जड़ से मिटाया जा सके .यह कार्य दो संस्थाएं बखूबी कर सकती हैं . पहली संस्था है समाज तथा दूसरी है सरकार.समाज को सदैव सजग रहते हुए अपने प्राथमिक कर्त्तव्य का निर्वहन करना होगा .सरकार से पहले उसे स्वयं ही आगे आना होगा. हम सब ही तो समाज का हिस्सा हैं फिर दूसरों को आरोपित करने से पहले हमें अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए .आप और हमसे ही समाज बनता है परन्तु जहाँ कहीं हमारी सामाजिक जिम्मेवारी निभाने की बात आती है वहां हम पीछे हट जाते हैं . किसी भी घटनास्थल पर समाज का कोई न कोई प्रतिनिधि या घटक अवश्य मौजूद होता है.
और वह प्रतिनिधि अपनी सामाजिक जिम्मेवारी निभाते हुए सम्बंधित सरकारी संस्था को समय रहते सूचना दे दे तो संभवतः अनेको दुर्घटनाओं को होने से बचाया जा सकता है. समाज को अपने पास-पड़ोस में हो रही गतिविधियों के प्रति सजग और जागरूक रहना होगा. संदिग्ध कार्यों और उनसे सम्बद्ध प्रत्येक व्यक्ति अथवा संस्था के खिलाफ बेझिझक औरनिडर होकर उंगली उठानी होगी. " मुझे फर्क नहीं पड़ता... मैं क्यों करूँ " की प्रवृत्ति छोडनी होगी. हमेंअपने भीतर से भय को निकाल फेंकना होगा. क्योंकि ये भय ही तो है जिसका लाभ एक आतंकी उठाता है.यदि पहला और दूसरा व्यक्ति जिसे कोई आतंकी धमकाता है ,हिम्मत जुटा कर उस पर टूट पड़ें तो उसका हौसला स्वतः ही पस्त हो जायेगा. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि एक आदमी के लिए एक ही काफी होता है.ऐसी दशा में अधिक से अधिक वह एक या दो की जान से खेल सकता है, परन्तु अन्य लोगों की जागी हुई हिम्मत उसका कचूमर बना डालेगी . यही वह सामाजिक महामंत्र है जो आतंकवाद को जड़ से उखाड़ फेकने में कारगर सिद्ध होगा .आवश्यकता है तो बस इस महामंत्र को समाज के सभी अंगों की दिनचर्या में ढालने की , इसे रग-रग में घोल देने की.जिस दिन समाज भय- विहीन होकर आतंक को चुनौती देने लग जायेगा उस दिन से ही आतंक की बीमारी का खात्मा होना शुरू हो जायेगा. इसके बाद दूसरी संस्था (सरकार) की जिम्मेवारी आती है . सरकार की नैतिक जिम्मेवारी है की वह अपने नागरिकों की सुरक्षा का ऐसा प्रबंध करे कि
कोई चूक न होने पाए . देश का खुफियातंत्र इतना चाक-चौबंद हो कि कोई हादसा पेश आने से पहले ही उसे भांप
कर उचित कदम उठाया जा सके . हमें अपने सुरक्षा-बलों की क्षमता पर कोई शक नहीं है . जरूरत है तो सिर्फ उन्हें नवीनतम संसाधनों से लैस करने की तथा सदैव उनका ऊँचा मनोबल बनाये रखने की. न्याय प्रक्रिया को
भी नए सिरे से सुदृढ़ करने कीआवश्यकता है जिसमें आतंकवाद सेनिपटने के लिए त्वरित एवं सख्त से सख्त
कोई चूक न होने पाए . देश का खुफियातंत्र इतना चाक-चौबंद हो कि कोई हादसा पेश आने से पहले ही उसे भांप
कर उचित कदम उठाया जा सके . हमें अपने सुरक्षा-बलों की क्षमता पर कोई शक नहीं है . जरूरत है तो सिर्फ उन्हें नवीनतम संसाधनों से लैस करने की तथा सदैव उनका ऊँचा मनोबल बनाये रखने की. न्याय प्रक्रिया को
भी नए सिरे से सुदृढ़ करने कीआवश्यकता है जिसमें आतंकवाद सेनिपटने के लिए त्वरित एवं सख्त से सख्त
प्रावधान हों . आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त लोगों को आम गुनह्गारों की श्रेणी से अलग रखा जाए. उनके खिलाफ जल्द से जल्द और सख्त से सख्त सजा का प्रावधान हो जिसे देखकर किसी भी गुनाहगार की रूह काँप उठे . साथ ही साथ यह सबसे जरूरी है की सरकार अपने नागरिकों की समस्याओं के प्रति सदैव सजग रहे और उन्हें अनदेखा न करे .समय रहते ही उनका समाधान निकाले जिससे किसी के मन में दुर्भावना पलने न पाए . इसके बाद एक तीसरी संस्था संचार माध्यमों की है जो आतंकवाद को नेस्तनाबूद करने में अहम् भूमिका निभा सकती है. मीडिया को चाहिए की वे अपना कार्य करते वक्त देशहित को नज़रंदाज़ ना करें . अंततः यदि ये तीनों संस्थाएं मिलकर अपना -अपना कर्त्तव्य निष्ठापूर्वक निभाएं तो निश्चय ही आतंकवाद रुपी व्याधि से छुटकारा मिल जायेगा .
जय हिंद - जय भारत .