चित्र लेखन
(लावणी छंद)
*पलायन*
अगर अकेले हम होते तो,रुक भी जाते बात न थी।
बच्चे थे घरवाली भी थी,रुपयों की सौगात न थी।।
अपने रूठे सपने टूटे,टूटा ताना-बाना जी।
जिसको हम अपना कहते थे,नगर वही बेगाना जी।।
बहुत हुआ अब रोना-धोना,यहाँ-वहाँ का खाना जी।
अब ना रोको नहीं रुकेंगे,हमको है घर जाना जी।।
जान लगा कर करी चाकरी,नहीं मिला हर्जाना जी।
जीना हुआ मुहाल शहर में,मिले न मेहनताना जी।।
23/4/21 ~अजय 'अजेय'।
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