(विधाता छंद)
उठा कर ईंट माथे पर, चली है माँ कमाने को।
मिलेगा शाम का भोजन, तभी सबको खिलाने को।।
पसीना ही इत्र उसका, गर्द-माटी सजाने को।
नहीं छत सर छिपाने को, नहीं पानी नहाने को।।
लड़ाई है जमाने से, विजय पाना जरूरी है।
कठिन है राह ये लेकिन, पार जाना जरूरी है।।
कहाँ मिलती किसी को है, कभी मंजिल बिना मिहनत।
उगा कर फूल काँटों में दिखाना भी जरूरी है।।
31/07/21 ~अजय 'अजेय'।
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