हाल-ए-दिल्ली...
जैसे कि हाँफता हुआ, दफ़्तर गया हूँ,
आज फिर, मुश्किल से अपने घर गया हूँ।
बिखरे बमों के बीच,कई दफ़े गुजरा,
मत समझो, बारूद से मैं डर गया हूँ।
है अभी ताज़ी, ...हवाओं की कहानी,
टहलने मैं........ बाग़ के भीतर गया हूँ।
बात करता था मैं, हँसकर लताओं से,
सिसकता उनको भी देख कर गया हूँ।
सिसकता उनको भी देख कर गया हूँ।
वर्ष भर पहले भी आई थी, .....दिवाली,
इस दिवाली वाकई, मैं डर गया हूँ।
दीप के जलने की मुझको है खुशी पर,
सुन पटाखों की मगर, ...सिहर गया हूँ।
क्यों जलाई खेत में बाकी पराली?
देख कर लपटें यहाँ ठहर गया हूँ।
अन्नदाता हम कहा करते हैं तुमको,
प्राण-घाता अब तुम्हें उच्चर गया हूँ।
क्या जलाने में पटाखे, ही, ख़ुशी है?
प्रश्न मैं तुमसे ये आख़िर कर गया हूँ।
ख़ुशियाँ मनाओ ख़ूब, जग रोशन कर दो,
दीये खोजता हुआ, अक्सर गया हूँ।
मैं हूँ पर्यावरण, मैं आहत हूँ बेहद,
अब तो बख्शो जान, आधा मर गया हूँ।
ऐ इंसानों, है नहीं यह युद्ध, धर्मी,
सोचना ! ... मैं क्या निवेदन कर गया हूँ।
06 नवंबर 2018. ~~~अजय।
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