Tuesday 23 June 2015

संवेदनहीन...

संवेदनहीन... 

क्यूँ उठाऊंगा मैं, जिम्मेवारियाँ,
क्यूँ थामूंगा हाथ में पतवार मैं,
आशा भरी निगाहें बेधती रहें,
डोलती इक नाव पर सवार मैं। 

सींचा गया हूँ बेल की मानिंद मैं,
इस लिए हूँ लीन गहरी नींद में,
हादसों के हाथ झकझोरें भी तो,
क्यूँ उठाऊँ अपने कांधे भार मैं।

जाने किस आचार के आगोश हूँ,
होश में होते हुये ..... बे-होश हूँ,
दिख रहीं भविष्य की रुसवाइयाँ भी,
फिर भी हूँ अंजाना, बना लाचार मैं।

मत दिखाओ कोई मुझको रास्ते,
मैं हूँ केवल, सिर्फ अपने वास्ते,
जानता हूँ मैं, विषम से बच निकलना,
हूँ मजा हुआ वो कलाकार मैं। 

दर्द है..... तो तुम उठा लो वेदना,
मुझमें न थी, ..... न है, कोइ संवेदना,
मत रखो मुझसे कोई उम्मीद तुम,
हूँ बवंडर, ना कि शीतल बयार मैं। 

11 जून 2015              ...अजय। 

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