*काठ की हाँडी*
(पीयूष निर्झर छंद)
सो गया सपना बिचारे केजरी का।
चढ़ गया ताला हरीसन टेजरी का।
कब तलक ये काठ की हाँड़ी चलाते।
कब तलक ये झूठ की दालें गलाते।।
हैं नहीं पकतीं खिचड़ियाँ बाँस लटकी।
टाँग कर के बीरबल सी दाल मटकी।
खोखले वादे कहाँ तक काम आते।
तीर कब तक गैर के काँधे चलाते।।
10/2/25 ~अजय 'अजेय।