वह...(गिरि सुरेंद्र)
वह जन्मा था "केसरी, सारण",
वह शख्स नहीं था साधारण,
उसकी एक संत सी हस्ती थी,
कर्मस्थलि जिसकी "बस्ती" थी।
वह वृक्ष वृहद् , सम-पीपल था,
वह घट के जल सा शीतल था,
जिसके साये हम पले, बढ़े,
वह स्वर्ण था, ना कि पीतल था।
कस्तूरी थी उसके भीतर,
जिससे वह दमका करता था,
रस्ते कितने भी विषम हुये,
वह राह न भटका करता था।
माली सींचें अपने पौधे,
वह माली सींचा करता था,
जब तक न पूरण हों मकसद्
वह कदम-कदम संग चलता था।
पदचाप गूंजती रहती थी,
इस घर के कोने-कोने तक,
रस भरता था वह भोजन में,
इस थाली से उस दोने तक।
अब ! गर्मी वही, वही पाला,
है कुर्सी वही, वही आला,
खो गई कहीं वह प्राण-वायु,
खो गया कहीं वह रखवाला।
तकती है राह, जमीं उसकी,
खलती है आज कमी उसकी,
है गली मुहल्ला सून पड़ा,
फैली है आलम में सिसकी।
🙏 🙏 🙏 🙏 🙏
25 मई 18 ~~~अजय।
वह जन्मा था "केसरी, सारण",
वह शख्स नहीं था साधारण,
उसकी एक संत सी हस्ती थी,
कर्मस्थलि जिसकी "बस्ती" थी।
वह वृक्ष वृहद् , सम-पीपल था,
वह घट के जल सा शीतल था,
जिसके साये हम पले, बढ़े,
वह स्वर्ण था, ना कि पीतल था।
कस्तूरी थी उसके भीतर,
जिससे वह दमका करता था,
रस्ते कितने भी विषम हुये,
वह राह न भटका करता था।
माली सींचें अपने पौधे,
वह माली सींचा करता था,
जब तक न पूरण हों मकसद्
वह कदम-कदम संग चलता था।
पदचाप गूंजती रहती थी,
इस घर के कोने-कोने तक,
रस भरता था वह भोजन में,
इस थाली से उस दोने तक।
अब ! गर्मी वही, वही पाला,
है कुर्सी वही, वही आला,
खो गई कहीं वह प्राण-वायु,
खो गया कहीं वह रखवाला।
तकती है राह, जमीं उसकी,
खलती है आज कमी उसकी,
है गली मुहल्ला सून पड़ा,
फैली है आलम में सिसकी।
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25 मई 18 ~~~अजय।