Tuesday, 10 November 2015

जलो ऐसे कि.....

जलो ऐसे कि...

पियो इस तरह, कि तिश्नगी निकले,

जलो ऐसे कि, रोशनी निकले। 

रोज हँसते रहे हो, मेरी नाकामियों पे,
आज दिल से वो, दिल्लगी निकले। 

यूं हिकारत से, न देखा कीजै,

कभी तो नज़र से वो, पारगीं निकले।

हम भी तोहफे  हैं, इसी कुदरत के,

हमारे वास्ते भी, बंदगी निकले।

हमें न तिल-तिल कर, जलाए कोई,

जाँ निकले तो एक बारगी निकले॥ 

10 नवंबर 15                      ~~~अजय। 

(तिश्नगी=प्यास, हिकारत= हेय दृष्टि/नफ़रत, 
पारगीं=पूरानापन, बंदगी=प्रार्थना/पूजा )

Sunday, 8 November 2015

ससुराल...

ससुराल...
एक दिन बैठे-बैठे  ये कमाल हो गया,
वो अजनबी सा गाँव था, ससुराल हो गया।

मैं गुजरती थी बे-झिझक, बे-रोक गाँव से,
कोई बांध गया घुंघुरू दोनों ही पाँव से,
कहीं बज ना उठें... रोज का सवाल हो गया...
वो अजनबी सा गाँव था, ससुराल हो गया। 

दो लटकती थीं चोटियाँ, काँधों के बगल से,
मैं होने लगी बे-दखल, अपने ही दखल से,
लट सिमट के जूड़ा बना है, बाल हो गया...
वो अजनबी सा गाँव था, ससुराल हो गया।

उस दिन तो मेरे चलते, कदम ही रुक गए,
नैनों के पलक लाज से, स्वतः ही झुक गए,
स्वर्णिम मेरा कपोल , लाल-लाल हो गया...
वो अजनबी सा गाँव था, ससुराल हो गया।

07 नवंबर 15                       ~~~अजय।