बाबूजी का निधन...
आज ढह गयी वही इमारत
आज ढह गयी वही इमारत
जिसमें हम सब पलते थे
तपी धूप, बरखा, आंधी में
जिसकी छाँव निरखते थे
कहाँ गया बगिया का माली,
सबको सींचा करता था
हम सबकी गलती पर भी
वह आँखें मींचा करता था
उसने दिया सभी को हरदम,
उसको हम क्या दे पायेंगे
श्रद्धा के दो आंसू भर कर
उसकी याद पिरो लायेंगे
पूछा सबने, मुझसे आकर
चेहरा अश्कों से क्यों धोया
इस जीवन की तो रीत यही...
बोया-काटा , काटा-बोया
होगी दुनिया की रीत, सही
पर मैंने तो है अब खोया
क्या बतलाऊँ, मैं क्या बोलूँ...
मैं अँखियाँ भर भर क्यों रोया
झुका शीश है, आँखें नम हैं
कान खोजते उसके स्वर को
आयेगा क्या वापस मुड़ कर
नज़रें ताकें, फैले दर को
2४ दिसंबर २००४ ~~~अजय ।