Monday 12 May 2014

अज़ीज़ सी कशिश...

अज़ीज़ सी कशिश...


बसे वो ऐसे, मेरी रूहो-खयालातों में,
कि जिक्र रह-रह के, आ जाये, बातों बातों में।

हज़ार ताने सहे हमने, लाख फ़िकरे सुने,
डोर फिर भी, सौंप आए, उन्हीं हाथों में।

जिधर नज़र गयी, उधर ही वो, नज़र आए,
ऐसा चश्मा है, मुँदी आँखों में।

न जाने कौन सी, खुशबू से, लबरेज हैं वो,
एक अज़ीज़, सी कशिश है , मुलाकातों में। 

टूटे ख़ाबों ने, जग कर, इधर-उधर झाँका,
दिल में सोया था, किसे आता नज़र, वो रातों में। 

11 मई 2014                                                ...अजय। 

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