Tuesday 20 November 2018

ऐ वक़्त

ऐ वक़्त...

हो ले जितना भी कठिन,
ऐ वक़्त, मैं हारा नहीं हूँ,
साँस अब भी चल रही है,
मौत को, प्यारा नहीं हूँ। 

मत समझ मुझको मृतक-सम,
ईंट या गारा नहीं हूँ,
सूर्य से डर कर छिपूं क्यों,
ताप हूँ, तारा नहीं हूँ। 

साथ गर दोगे मेरा तुम,
राह  कुछ आसान होगी,
जल हूँ मैं मीठा, नदी का,
जलधि सा, खारा नहीं हूँ।

सांझ हो रही तो भय क्या ?
हूँ दीप, अँधियारा नहीं हूँ,
साथ देना हो तो दो.......,
मोहताज, तुम्हारा नहीं हूँ।

गढ़ूँगा मैं राह अपनी,
मैं   स्थिर धारा नहीं हूँ,
पद मेरे जमीन पर हैं,
मद से मैं, ज्वारा नहीं हूँ।

लिखूंगा तकदीर  अपनी,

"कर-कलम" के जोर से,
शक्ति से परिपूर्ण हूँ,
तकदीर का, मारा नहीं हूँ।

20 नवंबर 2018  ~~~अजय।

Friday 16 November 2018

भावना की शक्ति

भावना की शक्ति...


मैंने शब्द को, ओठों में सिमटते देखा है,
भाव में डूबे हुए, दिल को सिसकते देखा है,
भावना  को कसौटी पर तौलना सीखो  यारों,
मैंने भावना से भरे, नयनों को बरसते देखा है।

मैंने भावना में, पाषाण भी पिघलते देखा है,
भाव-शून्यता में, रिश्तों को चटकते देखा है,
भावनाओं की कद्र  करना सीख लो यारों,
भावना से, सूखती तुलसी को, पनपते देखा है। 

भाव-पूर्ण भक्त को भगवन से लिपटते देखा है,
भाव-हीन दुष्ट को भी संतों से उलझते देखा है,
भावना का भाव समझने से मत चूकना दोस्तों,
भावना के बल तूफाँ से कश्तियाँ निकलते देखा है। 

16 नवंबर 2018                             ~~~ अजय। 

Tuesday 6 November 2018

हाल-ए-दिल्ली

हाल-ए-दिल्ली...


जैसे कि हाँफता हुआ, दफ़्तर गया हूँ,
आज फिर, मुश्किल से अपने घर गया हूँ।

बिखरे बमों के बीच,कई दफ़े गुजरा,
मत समझो, बारूद से मैं डर गया हूँ।

है अभी ताज़ी, ...हवाओं की कहानी,
टहलने मैं........ बाग़ के भीतर गया हूँ।

बात करता था मैं, हँसकर लताओं से,
सिसकता उनको भी देख कर गया हूँ।

वर्ष भर पहले भी आई थी, .....दिवाली,
इस दिवाली वाकई, मैं डर गया हूँ।

दीप के जलने की मुझको है खुशी पर,
सुन पटाखों की मगर, ...सिहर गया हूँ।

क्यों जलाई खेत में बाकी पराली?
देख कर लपटें यहाँ ठहर गया हूँ।

अन्नदाता हम कहा करते हैं तुमको,
प्राण-घाता अब तुम्हें उच्चर गया हूँ।

क्या जलाने में पटाखे, ही, ख़ुशी है?
प्रश्न मैं तुमसे ये आख़िर कर गया हूँ।

ख़ुशियाँ मनाओ ख़ूब, जग रोशन कर दो,
दीये खोजता हुआ, अक्सर गया हूँ।

मैं हूँ पर्यावरण, मैं आहत हूँ बेहद, 
अब तो बख्शो जान, आधा मर गया हूँ।

ऐ इंसानों, है नहीं यह युद्ध, धर्मी,
सोचना ! ... मैं क्या निवेदन कर गया हूँ।

06 नवंबर 2018.           ~~~अजय।

Saturday 3 November 2018

अँखिया के पुतरी

अँखिया के पुतरी...
(अँखियों पर एक प्रयास भोजपूरी में भी....)

अपने हियवा में हमके, बसा लs गोरिया,
हमके अँखिया के पुतरी, बना लs गोरिया।

दरपन निरेखबू त, हमहीं देखाइब,
पलक झुकईबू त, हमहूँ लुकाइब...
अपने गरवा में 'सुतरी' बन्हा लs गोरिया,
हमके अँखिया के पुतरी बना लs गोरिया।

तोरे आँखी बसेला, हमार ज़िंदगानी,
देखि नाहीं सकीं तोहरे, नयना में पानी, 
अपनी देहींया के चुनरी, बना लs गोरिया,
हमके अँखिया के पुतरी, बना लs गोरिया।

०२ नवम्बर २०१५             ~~~ अजय।