Wednesday 15 August 2018

ये कैसी आज़ादी यारों

ये कैसी आज़ादी यारों...

ये कैसी आज़ादी यारों,
साँस आ रही, पहरों में,
ख़ौफ़ के मंज़र चप्पे-चप्पे,
गली, मुहल्ले, शहरों में।

जुबाँ बधाई बाँट रहीं हैं,
ऊँचे, नीचे, मंचों से,
भय के साये झलक रहे हैं,
जाने अंजाने चेहरों में।

वह यह कह कर अलग हुआ,
मैं नही रहूँगा संग तुम्हारे,
क्यों दावे करता फिरता है,
अब हिम, गिरि, जल, नहरों में।

सीधे-सीधे सामने आकर,
युद्ध नहीं लड़ सकता वह,
तीर चलाता रहता है वो,
बुझे हुये कुछ, ज़हरों में।

सीमाओं पर खड़ा सिपाही,
किस पर किस पर, नज़र रखे,
अपनों में से मिले हुये हैं,
वीभीषण, कुछ ग़ैरों में।

पा सकते हैं हम आज़ादी,
अगर ज़रा कुछ, हम भी कर लें,
"प्रहरी" की नैया को बल दें,
उतरें जब, वे लहरों में।

"काली भेड़ों" के डेरे हैं,
आस हमारे, पास हमारे,
करें उजागर उन डेरों को,
"रखवालों" की नज़रों में।

चाह रहे हो आज़ादी तो,
प्रकट करो "काली भेड़ों" को
कान की ठेपी, चुप्पी तोड़ो,
खड़े हो क्यों, चुप, बहरों में।

15 अगस्त 2018.     ~~~ अजय।

Sunday 5 August 2018

और प्यार हो तो...

और प्यार हो तो...

यदि जंग हो तो जंग का आचार होना चाहिये,
हो प्यार तो फिर प्यार का इज़हार होना चाहिये,
बहक सकती हैं कभी भी, कश्तियाँ मजधार में,
माँझियों के हाथ में, पतवार होना चाहिये।
रणभूमि की तैयारियों में ढाल ही काफ़ी नहीं,
सूरमा के हाथ में तलवार होना चाहिये।
लड़ रहा है यह सिपाही जान पर भी खेल कर,
साथ इसके देश का परिवार होना चाहिये।
गुलों के ख़ुशबू की चाहत है नहीं किसको भला,
पर गुलों के साथ में कुछ खार होना चाहिये।
मसलने को  जो उठें, गर हाथ, कोई पंखुड़ी,
फूल की आवाज़ भी फुफ़कार होना चाहिये।
लूटने को आमादा जो अस्मतें मासूम की,
मुकदमें उनके त्वरित निपटार होना चाहिये।
बेटियाँ सरस्वती, लक्ष्मी, महाकाली बनें,
उनपर न कभी कोई अत्याचार होना चाहिये।
हाथ में जिसने थमा रक्खे हैं पत्थर घात के,
उनके डेरों पर करारा वार होना चाहिये।
सुधर सकती हैं बड़ी से बड़ी भी कुछ ग़लतियाँ,
शर्त ये कि हृदय से इकरार होना चाहिये।
गँठबंधन के भार से झुकने लगे अब बादशाह,
मुल्क का मज़बूत ही सरदार होना चाहिये।
मिमियाती बकरी की सुनता है कहाँ कोई कभी,
मुखिया की आवाज़ में हुंकार होना चाहिये।
ये देश मेरा था, मेरा है, और मेरा रहे,
साज़िश रचने वालों का संहार होना चाहिये।
बालकों तुमसे मेरा अनुरोध है कर ज़ोर कर,
भारत का भारतीय, संस्कार होना चाहिये।
भटकते हैं मन कहीं और तन कहीं ब्यभिचार में
मेरी मुट्ठी में मेरा, संसार होना चाहिये।
पढ़ रहे हैं रोज़ हम हृदय-विदारक सुर्ख़ियाँ,
साफ़ सुथरा अब तो यह अख़बार होना चाहिये।
जातियों में बाँटना और मज़हबों में छाँटना,
आज से ही बंद यह व्यापार होना चाहिये।
अल्पसंख्यक मानते हो, अल्प रहना लाजमीं,
देश-हित में अल्प ही, परिवार होना चाहिये।
देश का क़ानून है तो व्यक्तिगत क़ानून क्यों,
न्याय हर दम, व्यक्तिगत से पार होना चाहिये।
एक देश, एक धर्म - सिर्फ़ हिन्दुस्तानियत,
'एक नियम' का चलन स्वीकार होना चाहिये।

05 अगस्त 18                       ~~~ अजय।