Tuesday 20 March 2018

पतझड़ का पत्ता

पतझड़ का पत्ता...

मैं पतझड़ का पीला पत्ता,
पका-पका सा दिखता हूँ,
साँसें फूली जातीं मेरी,
थका-थका सा लगता हूँ।

जब मैं हरा-हरा होता था,
रस से भरा-भरा होता था,
अब रसहीन हुआ बदरंगा,
शाख़ पे अटका लगता हूँ।

जब से हरियाली पाई है
मैं पालता सबको आया हूँ,
आज ज़रा जो उम्र ढली,
आँखों में खटका लगता हूँ।

कभी मैं आँखों का तारा था,
मुझको सबने पुचकारा था,
जर्जर हुआ, आज सूखा मैं,
राही भटका लगता हूँ।

जीवन की तो रीत यही है,
सच्ची कोई प्रीत नहीं है,
जब तक रस से भरा हुआ हूँ,
आम पका सा लगता हूँ।

दुखी न होना ऐ मेरे मन,
हर उपवन का यह ही जीवन,
खिला तो मखमल सा मैं भाया,
उजड़ा.... खद्दर सा छँटता हूँ।
20 /03/2018.     ~~~अजय।

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