Tuesday 20 February 2018

मछलियाँ और सियासत

मछलियाँ और सियासत...

वे छोटी-छोटी मछलियों को घेरते रहे,
बड़ी वाली सारी, जाल काट, साथ ले गयीं।

वो समंदर की थीं, गंगा भाती भी क्यों,
जाने कितनों के मुख का, दाल-भात ले गयीं।

जो सर पर बिठाते थे अब तक उनको,
उन्हीं के सर से, साया, कनात ले गयीं।

जब बढ़ीं फुसफुसाहटें, थोड़ी हवाओं में,
शातिर थीं, पार सागर, वो सात कर गयीं।

सियासतें भी कैसी कुत्ती हैं, देखिये जनाब,
भौंक भौंक कर, इल्जामात-ए-बरसात कर गयीं।

हम चाहते हैं पूरी सबकी मुराद हो,
"औजार" कोई ऐसा, अब तो इज़ाद हो,
काँटा बने ऐसा, जो 'बड़ी' को भी नाथ लाय,
वे जिंदगी भर तड़पें कि, क्यों वे घात कर गयीं।
19 फरवरी 2018                     ~~~अजय।

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