Friday 23 February 2018

वह है यहीं कहीं

वह है यहीं कहीं...

वह है भी यहीं, और है भी नहीं,
वो चला भी गया, और गया भी नहीं,
हम जो मिलने पहुँचे थे वहाँ पर उस दिन,
वो बस लेटा रहा...... वो उठा भी नहीं।

ऐसा पत्थर दिल हो जायेगा मेरा दोस्त,
न था विश्वास, और मानना भी कठिन,
कि जो हँसता था हर बात पर अब तलक,
रोने-गाने तक पर,वह हँसा ही नहीं।

सब की बातों में था, सब की सुबकियों में था,
भीगी आँखों में छुपती, उन अश्कियों में था,
जो खुल के न निकलीं, उन सिसकियों में था,
वह फिर सुबह अख़बार वाली सुर्खियों में था।

मेरी यादों ने फिर है पुकारा उसे,
जो चला तो गया, और गया भी नही,
एक दिल है यहाँ, जो न करता यक़ीं,
कि वो है भी यहीं, और है भी नहीं। 
14/02/2018.            ~~~अजय।

Wednesday 21 February 2018

इस होली...

इस होली...

होली के हुड़दंग का, बजा रिया हूँ शंख,
सबको गले लगाइये, भेद न राजा, रंक।

जाति धर्म मत पूछिये, यह सबका त्यौहार,
मिल-जुल साथ दिखाइये, भारत का आचार।

ऐसे रंग बिखेरिये, मिट जायें सब पीर,
एक रंग भारत रंगे, केरल से कश्मीर।

मिल कर खायें हम सभी, गुझिया और नमकीन,
चाहे जितनी मिर्च चखें, पाकिस्तां और चीन।

है मिठास सबमें वही, गुझिया, सेंवई, खीर,
जानि लेहुं इस बात को, मुल्ला पंडित पीर।

खायेंगे सब अन्न ही, पशु आदम या अन्य,
जिस दिन हम यह मान लें, धरती होगी धन्य। 

कर्ज धरा का मानिये, भारत-भूमि महान,
स्वर्ग है इसको मानिये, मत कीजै अपमान।

कर्म न ऐसा हो कोई, लगे दाग स्वभिमान,
हों विचार यदि भिन्न भी, वाणी में हो मान।
21/02/2018.                      ~~~अजय।

Tuesday 20 February 2018

मछलियाँ और सियासत

मछलियाँ और सियासत...

वे छोटी-छोटी मछलियों को घेरते रहे,
बड़ी वाली सारी, जाल काट, साथ ले गयीं।

वो समंदर की थीं, गंगा भाती भी क्यों,
जाने कितनों के मुख का, दाल-भात ले गयीं।

जो सर पर बिठाते थे अब तक उनको,
उन्हीं के सर से, साया, कनात ले गयीं।

जब बढ़ीं फुसफुसाहटें, थोड़ी हवाओं में,
शातिर थीं, पार सागर, वो सात कर गयीं।

सियासतें भी कैसी कुत्ती हैं, देखिये जनाब,
भौंक भौंक कर, इल्जामात-ए-बरसात कर गयीं।

हम चाहते हैं पूरी सबकी मुराद हो,
"औजार" कोई ऐसा, अब तो इज़ाद हो,
काँटा बने ऐसा, जो 'बड़ी' को भी नाथ लाय,
वे जिंदगी भर तड़पें कि, क्यों वे घात कर गयीं।
19 फरवरी 2018                     ~~~अजय।

Monday 5 February 2018

दाँत का दर्द

दाँत का दर्द ...

यूँ तो हर दर्द एक ही सा है, 
मगर दाँत का दर्द बड़ा अजीब सा है।

रह रह के तेज़ टीस सी उभरती है,
जो दाढ़ से कनपटी तक गुजरती है।

पानी की बूँद तक कहर ढाने लगती है,
गर्म चाय की घूँट जैसे जहर माने लगती है।

रोगी तब सुख चैन सब खो देता है, 
बड़े से बड़ा बहादुर जबड़ा थाम के रो देता है।

भूल जाता आदमी ख़ुशियाँ भरी किलकारियाँ,
उठने लगती हैं सतत् जब दर्द की सिसकारियाँ।

है प्रार्थना कर जोड़ कर,  रखना भरम इस बात का,
हे ईश देना कुछ भी पर, मत दर्द देना दाँत का,
05फरवरी2018.                  ~~~ अजय।