Saturday 12 November 2016

मैं जिंदगी थी...

मैं जिंदगी थी...

वो तो वक्त था... गुजरता रहा,
मैं जिंदगी थी... चलती रही।

राह में लोग कई मिले,
कुछ ने ताने मारे, कुछ लगे गले,
कुछ को हम बुरे थे, कुछ को लगे भले,
कुछ दो-चार कदम, कुछ सालों साथ चले,
सुबह आती रही, शाम ढलती रही...
मैं जिंदगी थी... चलती रही।

कभी लड़खड़ाई मैं, तो कुछ बढ़े हाथ,
कुछ ने रंज किया, कुछ का मिला साथ,
कुछ ने वायदे किये, कुछ ने बनाई बात,
कुछ 'दिन' तक साथ रहे, छोड़ा जब आई 'रात',
एक शम्मा थी... जो जलती रही...
मैं जिंदगी थी... चलती रही।

थक कर बैठ जाती, वो मेरी फ़ित्रत न थी,
निढाल करती मुझे, ऐसी कोई ताकत न थी,
खार से खौफ़ खाना, भी मेरी सीरत न थी,
राह से लौट जाऊँ, ये मेरी हसरत न थी,
सफ़र जारी रहा, साँस पलती रही...
मैं जिंदगी थी... चलती रही।

09 नवम्बर 2016                   ~~~अजय।

Sunday 6 November 2016

प्रदूषण दिल्ली का

प्रदूषण दिल्ली का ...

सफेद चादर ओढ़ कर
राजधानी सो रही है,
खतरों का रुख देखकर,
जनता सारी रो रही है।

प्रदूषण ऊँचे स्तर चढ़ कर,
इल्जाम औरों के सर मढ़कर,
दूषित राजनीति हो रही है,
दिल्ली खून के आँसू रो रही है।

साँस लेना दूभर है,
धुआँ पैमानों से ऊपर है,
आरोप-प्रत्यारोप की लड़ाई हो रही है,
और जनता इस दर्द को ढो रही है।

मगर मेरा सवाल है आपसे,
सरकार का क्या रिश्ता है इस पाप स?
क्या सरकार धुँये के बीज बो रही है?
या फिर हमसे ही यह चूक हो रही है?

पटाखे और बम किसने चलाये थे?
फसलों के डंठल क्या उसने जलाये थे?
जहर फैलाने में तो जनता की शुमार  हो रही है,
तो सरकार कैसे गुनहगार हो रही है

अब भी चेतो तो परिस्थिति सुधर जाये,
आने वाली पीढ़ियों का जीवन  सँवर जाये,
देखो तो, जवानी में ही जवानी खो रही है,
किसी को दिल, किसी को फेफड़े की व्याधि हो रही है।.
05 नवंबर 2016                    ~~~अजय।

चुनाव का मौसम

चुनाव का मौसम...

कितना अच्छा होता,जो हर माह चुनाव होते,
हर मतदाता का महत्व और अच्छे-अच्छे भाव होते।

किसी को भी न दुत्कारा जाता,
कमज़ोर,ग़रीब को भी सत्कारा जाता।

यदि भय होता अगले दिन कुर्सी जाने का,
तो हर कार्यकर्ता चाहता भी, कुछ कराने का।

सरकारी ख़जाने का पैसा, किसी की जेब में  न जाता, 
नेता जी का ध्यान भी टूटी सड़कों के फ़रेब पर जाता।

वादे करके भूल पाने का वक़्त न होता,
वोट पाने के बाद नेता घोड़े बेच कर न सोता,

एक और चाहत कि मात्र चुनाव जीतने से पेंशन न पकती,
तो किसी भी नेता जी की कभी, कार्यक्षमता न रुकती।

काश ! ऐसा होता कि हमारे भी असल के नाव होते,
न कि बस काग़ज़ी, ये हमारे ख़याली पुलाव होते।

न हम अपना मत किसी धर्म - जाति के लगाव खोते,
राजनैतिक अखाड़े में अपने भी कमाल के दाव होते।
 काश..... कितना अच्छा होता......

11 फ़रवरी 17.                                ~~~ अजय।

सौम्य दिवाली - सभ्य दिवाली

सौम्य दिवाली - सभ्य दिवाली...

सुनो मेरे मित्रों, सुनो मेरे आका,
सुनो मेरे भाई, सुनो मेरे काका,
सुनो बबलू , डबलू , सुनो रॉनी, राका,
सुनो जी फलाना, सुनो जी ढिमाका।

हो सुंदर दिवाली, हो उज्ज्वल दिवाली,
न हो कोई बम-वम, न कोई धमाका,
दीपों से रोशन हो, घर-घर खुशहाली,
न कोई प्रदूषण, न कोई पटाखा।

न गन्दी हों गलियाँ, न मुरझायें कलियाँ,
न शोला कोई हो, सबब हादसा का,
न भयभीत हों जन, न शंकित रहें मन
न बारूद कर दे, दुखी मन हवा का।

मनाएं दिवाली यह, सौम्य सभ्यता से,
पेश आयें न आप, किसी से असभ्यता से,