Sunday 8 November 2015

ससुराल...

ससुराल...
एक दिन बैठे-बैठे  ये कमाल हो गया,
वो अजनबी सा गाँव था, ससुराल हो गया।

मैं गुजरती थी बे-झिझक, बे-रोक गाँव से,
कोई बांध गया घुंघुरू दोनों ही पाँव से,
कहीं बज ना उठें... रोज का सवाल हो गया...
वो अजनबी सा गाँव था, ससुराल हो गया। 

दो लटकती थीं चोटियाँ, काँधों के बगल से,
मैं होने लगी बे-दखल, अपने ही दखल से,
लट सिमट के जूड़ा बना है, बाल हो गया...
वो अजनबी सा गाँव था, ससुराल हो गया।

उस दिन तो मेरे चलते, कदम ही रुक गए,
नैनों के पलक लाज से, स्वतः ही झुक गए,
स्वर्णिम मेरा कपोल , लाल-लाल हो गया...
वो अजनबी सा गाँव था, ससुराल हो गया।

07 नवंबर 15                       ~~~अजय। 

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