Sunday 19 July 2015

सियासत के रिश्ते...

सियासत के रिश्ते...

ऐ मेरे दोस्त, इसमें ऐसा क्या अजूबा है ?
वो कल तेरी माशूका थी... वो आज मेरी महबूबा है। 

नया कुछ भी नहीं कि इतना मायूस हो चला है तू,
यहाँ हर शख़्स जितना बाहर, उससे कई गुना डूबा है।

नज़र आता नहीं चेहरा, असल, सियासतदारों का,
जान पाओगे तुम कैसे, कि किसका क्या छुपा मंसूबा है।

रिश्ते कब उग आयें कहाँ, बंजर जमीनों में,
कौन जाने कि वो रकीब है, या कि वो कोई दिलरूबा है।

सियासत खेल जादुई, बहुत अजीब है जानम,
रिश्ते बुलबुले यहाँ, सिर्फ कुर्सी ही एक महबूबा है॥

01 सितंबर 15                             ~~~अजय। 

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