Thursday 9 January 2014

अकेलापन...

अकेलापन... 

मैंने अकेलेपन को जब देखा करीब से,
वह भी लगा हारा हुआ अपने नसीब से।

वे खुश रहें, खिलते रहें,बस चाहता है वो,
अपनों के वास्ते, स्वयं को पालता है वो।

दो शब्द अपनेपन के पड़े, उसके कान में,
वह टूट कर बिलख पड़ा, दिल के उफ़ान में।

"क्यों छेड़ते हो यार"... वह कहने लगा मुझसे,
सब जानते ही हो, फिर कैसा गिला, किससे?

आए भी थे तनहा यहाँ......जाना भी तनहा ही,
अकेलेपन से क्यों शिकवा, अकेलापन भी तनहाई।

ये तनहाई ही है जो, उनकी यादें साथ लाती है,
अकेलेपन में भी हमतक, सितारे-चाँद लाती है।

हजारों लोग नज़र में, अकेला फिर भी क्यों है मन,
कोई जो मन मे बसता है, उसी से है ये खालीपन।

08 जनवरी 2014                                                      ...अजय। 

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