Friday 8 March 2013

बोझिल पलकें


बोझिल पलकें ...

पल-पल छेड़ती है ये दुनिया,
आप भी कुछ सता जाइये ....
साँझ घिर आयेगी, खुद-ब-खुद ही, 
थोड़ी पलकें झुका लाइये । 

दिन के सूरज ने तन को तपाया 

चाँद ने शब भर दिल को दुखाया
भीड़ तनहाइयों की, शहर में  
मेरा कोई नहीं इस पहर  में ...
आप  ही शाम  बन आइये...
साँझ घिर आयेगी, खुद-ब-खुद ही 
थोड़ी पलकें झुका लाइये ।


ज़िंदगी भर फिरे जंगलों में , 
आप हाजिर रहे फासलों में
धडकनों ने तराशा था उसको,
पत्थरो पर कुरेदा है जिसको ...
वो ही दिल आज दे जाइये। 
साँझ घिर आयेगी, खुद-ब-खुद ही 
थोड़ी पलकें झुका लाइये ।

धमनियों में, शिराओं में शामिल    

आती जाती हवाओं में दाखिल 
खोजता है जिसे आज भी दिल 
देखना  चाहता है ये संग-दिल 
रोशनी बन के आ जाइये  .....
साँझ घिर आयेगी, खुद-ब-खुद ही 
थोड़ी पलकें झुका लाइये । 

हैं बगीचों में लौटी बहारें,
खिलती कलियों पे भँवरे पधारें ,
लौट आई फिजाँ गुलशनों में ,
बागबाँ  रोज राहें बुहारें 
आप भी रुख दिखा जाइए...
साँझ घिर आयेगी, खुद-ब-खुद ही 
थोड़ी पलकें झुका लाइये । 


आप भी कुछ सता जाइये ....
थोड़ी पलकें झुका लाइये । 


८ मार्च १३                             ......अजय।  

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