Thursday 18 October 2012

चाहतों का सिला


चाहतों का सिला

मैं तुम्हारी चाहतों का क्या सिला दूं 
तुम सजे  महल हो मैं उजड़ा किला हूँ

तुम शरद की धूप हो उर्जा भरी
और सावन मास की खेती हरी
ग्रीष्म में पीपल की ठंढी छाँव तुम
वृष्टि की हो गुदगुदाती फुलझरी
गरल का शिव की तरह मैं पान कर लूँ
सुधा का भर पात्र मैं तुमको पिला दूँ
मैं तुम्हारी चाहतों का क्या सिला दूं .......

जब भी हम बोझिल हुये तुमने दिशा दी
स्याह काली निशा को तुमने प्रभा दी
शुष्क रेगिस्तान में सरिता बहा दी
डूबती साँसों को तुमने फिर हवा दी
मैं ऋणी हर पल तुम्हारे स्नेह का हूँ
हो नहीं सकता की मैं तुमको भुला दूं
मैं तुम्हारी चाहतों का क्या सिला दूं ......

कह  रहा हूँ प्रेम  में रस से भरा
वृक्ष हो तूम मैं हूँ  एक पत्ता हरा
शक्ति पाता हूँ तुम्हारी शाख से
मैं हवा में झूलता तुमसे धरा
सोचता हूँ किस तरह तुमको सजा दूँ
महकते पुष्पों की मैं कलियाँ खिला दूँ 
मैं तुम्हारी चाहतों  का क्या सिला दूं ..... 

                                   .........अजय
o8/10/10

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