Tuesday 4 October 2011

Sarhad Ke Paar

सरहद के  पार भी...

सरहद  के उस पार भी... 
एक ऐसा गाँव है. 
ऐसा ही पनघट है,
और बड़, पीपल की छाँव है.

लोरियां वहां भी, गाती हैं माताएं
सर्दी की शामों को जलती अलाव है .
दर्द वैसा ही है, अपनों से बिछुड़ने का वहां, 
जैसे, यहाँ सीनों में रिसता यह घाव है .

वैधव्य की कसक उतनी ही, कसैली है वहां भी,
जितनी चुभन भरी, "सफ़ेद साड़ी" की छाँव है.
रक्त  का रंग  उतना  ही, सुर्ख  है वहां भी,
उतना ही पावन , महावर लगा पाँव है.

बेटों की मौत पर, वहां भी बहते हैं अश्क ही,
जैसे यहाँ शहीदों के लिए, होता यह स्राव है.
माँ की ममता तो, वहां भी शीतल ही है,
नदियों के घाटों पर, वही लकड़ी की नाव है.

जब सब एक सा है, तो कौन ऐसा कर गया...?
भाइयों के बीच का वो भाई-चारा मर गया.
साथ बैठ कर खाता, था उसी थाली में जो,
प्रेम की थाली को, अपने हाथों बेध कर गया 

०४ अक्तूबर ११                                                                                   ...अजय 

6 comments:

  1. Bahut hi behatareen comparison hai! :) Badhaai itni sundar Bhaavaabhivyakti ke liye...

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  2. आप सभी को हार्दिक धन्यवाद

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  3. Bahut hi Dil ko chhune wali hai !

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  4. धन्यवाद शेखर जी . अपना परिचय देते तो अच्छा होता .

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