Saturday 8 October 2011

Naasamajh

ना-समझ... 

दर्द को तो सभी ने सहा है मगर ,
"दर्द" से कोई परिचय कराता नहीं

प्रेम में सबने आहें भरीं हैं मगर, 
"प्रेम" क्या है, ये कोई बताता नहीं

हंसते देखा है सबको हजारों दफा ,
पर "ख़ुशी" क्या है ,कोई सुझाता नहीं

हसरतें हैं उजालों की सबको यहाँ, 
"रोशनी" कोई मुझको दिखाता नहीं

पोथियाँ लिख गए हैं करोड़ों गुरु,
"सत्य" क्या क्या है, समझ फिर भी आता नहीं

नासमझों की बस्ती में हूँ आ गया, 
"ना-समझ" कोई कहता, तो भाता नहीं

एक ही बात खुद से हूँ समझा यहाँ,
कोई दूजा किसी का, विधाता नहीं

मेरे "अज्ञान" का दोषी खुद ही तो हूँ,
जो कदम अपना खुद मैं बढाता नहीं.

                                                                  ...अजय 

9 comments:

  1. Replies
    1. शुक्रिया ...... आपने अपना परिचय दिया होता तो और अच्छा होता

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  2. एक ही बात समझा हूं यहां
    कोई किसी का विधाता नहीं है

    खूबसुरत पंक्तियां.....

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  3. बहुत खूब , अच्छी रचना ...
    शुभकामनायें !

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  4. दीपों के पर्व की बधाई //
    कबीर ने प्रेम के बारे में कुछ कहा है ..क्या ख्याल है आपका

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  5. शुक्रिया ...... आपने अपना परिचय दिया होता तो और अच्छा होता

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