Thursday 21 July 2011

"हादसा" (मेरठ की आग से प्रेरित)

आज फिर एक बस्ती जल गयी
दूर-दर्शन जागा, ख़बरें उछल गयीं

राजनीतिक तवे को रोटी मिली 
सेंकनहारी  टोलियाँ मचल गयीं

किसको है चिंता कि किसने क्या खोया
किसकी खुशी आँसुओं में ढल गयी
कौन है रौंदा गया किसके तले
किसके होंठों कि हँसी घायल हुई

धुल गया सिन्दूर किसकी मांग का
किसके घर कि खनकती पायल गयी

रो रहा है पूत माँ का बिलखता
साथ लेकर सर का वह आँचल गयी

मौत का मंज़र भयानक है नज़र
देख कर है आत्मा दहल गयी

सिर्फ मेरठ कि नहीं यह दास्ताँ
लौट कर आयेंगी जो हैं टल गयीं
और भी होंगे हजारों हादसे
मानवीय संवेदना है जल गयी

देखिये मैदान वाली-बाल का 
"जिम्मेवारी" गेंद कि शकल हुई 
जिसकी ओर भी गयी, चपत लगी 
पाला दूसरे ही पल बदल गयी

 कौन ले मौतों कि जिम्मेदारियाँ
हाथ-झाड़न की प्रथा प्रबल भई 
तीर हैं आरोप-प्रत्यारोप के 
कर्म के प्रति चेतना है जल गयी

(मई २००६)                                          ...अजय 

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