Thursday 28 July 2011

बाबूजी का निधन

बाबूजी का निधन...

आज ढह गयी वही इमारत
जिसमें हम सब पलते थे
तपी धूप, बरखा, आंधी में 
जिसकी छाँव निरखते थे

कहाँ गया बगिया का माली,
सबको सींचा करता था
हम सबकी गलती पर भी 
वह आँखें मींचा करता था 

उसने दिया सभी को हरदम,
उसको हम क्या दे पायेंगे
श्रद्धा के दो आंसू भर कर 
उसकी याद पिरो लायेंगे

पूछा सबने, मुझसे आकर
चेहरा अश्कों से क्यों धोया
इस जीवन की तो रीत यही...
बोया-काटा , काटा-बोया 

होगी दुनिया की रीत, सही 
पर मैंने तो है अब खोया
क्या बतलाऊँ, मैं क्या बोलूँ...
मैं अँखियाँ भर भर क्यों रोया

झुका शीश है, आँखें नम हैं
कान खोजते उसके स्वर को 
आयेगा क्या वापस मुड़ कर 
नज़रें ताकें, फैले दर को 

2४ दिसंबर २००४                              ~~~अजय ।

Saturday 23 July 2011

बेरुखी

वो बेरुखी उनकी, बड़ा बवाल कर गयी 
हँसते हँसाते दिल से इक सवाल कर गयी

खोये थे खुश-गँवार हम, लम्हे किये नज़र
अक्सर हमारे दिल पे जो, वो चाल, कर गयी
वो बेरुखी उनकी...

छूकर बदन उनका हवा, आती हमारे पास
और जाते जाते हमको माला-माल कर गयी
वो बेरुखी उनकी...

गम-सुम सा वो चेहरा, और झुकी झुकी नज़र
किसी और के होकर चले, कदम जो दर बदर,
वह फूल सी कटार, जिसकी धार भी न थी
वो इस गरीब को यूँ ही हलाल कर गयी
वो बेरुखी उनकी...

१५ फरवरी ०६                           ...अजय 

Thursday 21 July 2011

"हादसा" (मेरठ की आग से प्रेरित)

आज फिर एक बस्ती जल गयी
दूर-दर्शन जागा, ख़बरें उछल गयीं

राजनीतिक तवे को रोटी मिली 
सेंकनहारी  टोलियाँ मचल गयीं

किसको है चिंता कि किसने क्या खोया
किसकी खुशी आँसुओं में ढल गयी
कौन है रौंदा गया किसके तले
किसके होंठों कि हँसी घायल हुई

धुल गया सिन्दूर किसकी मांग का
किसके घर कि खनकती पायल गयी

रो रहा है पूत माँ का बिलखता
साथ लेकर सर का वह आँचल गयी

मौत का मंज़र भयानक है नज़र
देख कर है आत्मा दहल गयी

सिर्फ मेरठ कि नहीं यह दास्ताँ
लौट कर आयेंगी जो हैं टल गयीं
और भी होंगे हजारों हादसे
मानवीय संवेदना है जल गयी

देखिये मैदान वाली-बाल का 
"जिम्मेवारी" गेंद कि शकल हुई 
जिसकी ओर भी गयी, चपत लगी 
पाला दूसरे ही पल बदल गयी

 कौन ले मौतों कि जिम्मेदारियाँ
हाथ-झाड़न की प्रथा प्रबल भई 
तीर हैं आरोप-प्रत्यारोप के 
कर्म के प्रति चेतना है जल गयी

(मई २००६)                                          ...अजय 

आज गंगा मर रही है

आज गंगा मर रही है ...

आज गंगा मर रही है
आख़िरी दम भर रही है

रो रहा है "यम" समंदर
बिलखते हैं शैल, गिरिवर
विनय करते संत, मुनिवर  
हे जगत्पति , भाल-शशिधर 
कर कृपा इसको बचालो...
आज गंगा मर रही है
आख़िरी दम भर रही है

देख लो निष्ठुर "निठारी"
बालकों पर काल भारी
वर्दियों को घुन लगे हैं
रक्षकों को नींद प्यारी
"भक्षकों" के चंद सिक्कों का 
वजन जनता पे भारी
नींद  से इनको जगा दो...
आज गंगा मर रही है
आख़िरी दम भर रही है

क़त्ल हो रही है श्रद्धा
रोज धोखा खा रही है
मान मर्यादा की अस्मत 
रोज लूटी जा रही है
पहरेदार धुत पड़े हैं 
जान मुजरे गा रही हैं
गश्त नंदी संग लगा दो...
आज गंगा मर रही है
आख़िरी दम भर रही है

आँख की लज्जा मरी है 
स्नेह संग ममता मरी है
तज के शील, वस्त्र, बाला
नाच नंगा कर रही है
द्रौपदी तक जग चुके 
वे कृष्ण शायद सो गए हैं
चीर इनका तुम बढ़ा दो...
आज गंगा मर रही है
आख़िरी दम भर रही है

है  नहीं बस नाम "गंगा"
यह हमारी शान है 
प्राण है  इस देश का
जन-जन का निज-सम्मान है 
इस देश के परिवेश में,
शामिल हवा में, धूल में
थी शाख, भारत-वृक्ष की
यह तन में है, और मूल में
सभ्यता है  यह हमारी
संस्कृति बन कर रही है
देर मत क्षण भर लगाना
प्रकट हो इसको सम्हालो...
आज गंगा मर रही है
आख़िरी दम भर रही है

क्या यही वह देश है
जिसमें रहा करते थे तुम
शैल-पुत्री संग लीलाएं
रचा करते थे तुम...?
स्वर्ग से पृथ्वी पे गंगा को 
तुम्ही ने राह दी थी
और इस गंगा ने 
सारे देश को निर्वाह दी थी
हो चुकी "जल" हीन यह
अब चंद साँसे भर रही है...
है अगर रिश्ता कोई तो 
आ के गंगाजल पिला दो...
आज गंगा मर रही है
आख़िरी दम भर रही है

 (10 अप्रैल 07)               ...अजय 
(यम = यमराज जो कभी  किसी के लिए रोता नहीं )