Thursday 9 June 2011

काँच का घर...

काँच का घर...


काँच का घर, काँच का दर, काँच की खिड़की, 
नहीं बयाँ किसी मकान का है, ... है ये घर की लड़की...
काँच का घर, काँच का दर ...

किस तरह सजाऊँ मैं, संवारूँ और सहेजूँ ...इसको,
सिहर उठता हूँ जब भी, कोई बिजली, कड़की
काँच का घर, काँच का दर ...

गया वो वक़्त जो ये, फटकार सुना करते थे, 
आज ये सह नहीं पाते हैं , मामूली, झिड़की
काँच का घर, काँच का दर ...

 मुझे यकीन भी है , मेरी परवरिश पे मगर, 
बे-यकीं समा,... है फिजाओं में, आँधियाँ, भड़की 
काँच का घर, काँच का दर ...

नज़र से बचने का, टीका भी, अब नकारा हुआ,
देखते-देखते छुटकी है, हो चली, बड़की....
नहीं बयाँ किसी मकान का है, ... है ये घर की लड़की...
काँच का घर, काँच का दर ... काँच की खिड़की 


29/11/2010                                        ~~~अजय 

7 comments:

  1. नज़र से बचने का टीका भी अब नकारा हुआ
    देखते-देखते छुटकी है हो चली बड़की....

    Waah!!! Har ek sher gajab ka likha hai! :) Bilkul naye jaisa... taaza sa...

    ReplyDelete
  2. बहुत सुन्दर ह्रदय के उदगार ...
    अद्भुत रचना ...!!
    शुभकामनायें ...!!

    ReplyDelete
  3. बारिश में तालाब हो जाते है कमजर्फ
    बाहर आपे से कभी समंदर होता नही...

    सतीश गिर गोस्वामी "पागल"

    ReplyDelete
    Replies
    1. यही तो समंदर की महान मर्यादा है सतीश जी ... बहुत खूब

      Delete
  4. जिंदगी के अंतिम सफ़र में पेश की गयी ये चंद पंक्तियाँ
    उम्मीद है पसंद जरुर आएँगी..



    इस आँगन से रिश्ता हमारा ख़त्म हुआ
    उठो ,ख्वाबों का नज़ारा ख़त्म हुआ.……
    कब तक टिमटिमाता आखिर दुनिया की खातिर;
    वो बेज़ार चमकता सितारा ख़त्म हुआ.…..
    घर लौटे हैं बच्चे मायूस हो कर;
    समुंदर से मिटटी का पुश्तारा ख़त्म हुआ.…
    उड़ गए हैं पंछी घरौंदा छोड़;
    इस जगह से उनका आब-ओ-चारा ख़त्म हुआ..
    चल पड़े हैं खानाबदोश कहीं दूर...
    फिर तनहा सफ़र शुरू हुआ,उम्मीद साथ उनका ख़त्म हुआ …..
    देखो उस और के कोई लाश उठ रही है....
    एक बुज़ुर्ग का आखिरी सहारा ख़त्म हुआ...
    कह दो अलविदा दोस्तों से तुम पागल"
    की अब बेरहम ज़िन्दगी का इशारा ख़त्म हुआ.....

    सतीश गिर गोस्वामी "पागल"

    ReplyDelete
  5. बहुत अच्छी अभिव्यक्ति ....सतीश जी

    ReplyDelete